प्राच्य स्तोत्र सङ्ग्रह
कृति - प्राच्य स्तोत्र सङ्ग्रह
सङ्ग्रह -
आशिर्वाद - श्रमण अनगाराचार्य श्री
विनिश्चयसागर जी गुरूदेव
सहयोग -
वेबसाइट - kritantagara.blogspot.com
शब्द संयोजन -
प्रकाशक - कृतान्तार प्रकाशन
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Book - प्राच्य स्तोत्र सङ्ग्रह
CONSORT -
ARISTOCRACY - Shraman Anagaracharya shri
Vinishchay Sagar ji gurudev
help -
Website - kritantagara.blogspot.com
Word combination -
Publisher - Kritantagara Publications
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मङ्गलपञ्चकम्
- अज्ञात
( )
गुण - रत्न - भूषा विगत - दूषाः, सौम्य भाव निशाकराः ,
सद्बोध - भानु - विभा - विभासित - दिक्चया विदुषां वराः ।
निःसीम - सौख्य - समूह - मण्डित - योग - खण्डित - रतिवराः ,
अर्हन्त इह कुर्वन्तु मङ्गल - मत्र वीर - जिनेश्वराः । । १ । ।
सद्ध्यान - तीक्ष्णकृपाणधारा , निहत - कर्म - कदम्बकाः ,
देवेन्द्र - वृन्द - नरेन्द्र - वन्द्याः , प्राप्त - सुख - निकुरम्बकाः ।
योगीन्द्र - योग - निरूपणीयाः , प्राप्त - बोध - कलापकाः ,
कुर्वन्तु मङ्गल - मत्र ते , सिद्धाः सदा सुखदायकाः । । २ । ।
आचार - पञ्चक - चरण - चारण - चुञ्चवः समता - धरा ,
नाना तपो भर हेति हापित , कर्मकाः सुखता कराः ।
गुप्ति - त्रयी - परिशील - नादि - विभूषिता वदतां वराः ,
कुर्वन्तु मङ्गलमत्र ते , श्री - सूरयोऽर्जित - शम्भराः । । ३ । ।
द्रव्यार्थ - भेद - विभिन्न - श्रुतभर - पूर्ण - तत्त्व - निभालिनो ,
दुर्योग - योग - निरोध - दक्षाः , सकल - वर - गुण - जालिनः ।
कर्तव्य - देशन - तत्परा , विज्ञान - गौरव - शालिनः ,
कुर्वन्तु मङ्गल - मत्र ते , गुरु - देव - दीधिति - मालिनः ।। ४ ।।
संयम - समित्यावश्यका - परिहाणि - गुप्ति विभूषिताः ,
पञ्चाक्ष - दान्ति - समुद्यताः समता - सुधा - परिभूषिताः ।
भूपृष्ठ - विष्टर - शायिनो विविधर्द्धि - वृन्द - विभूषिताः ,
कुर्वन्तु मङ्गल - मत्र ते , मुनयः सदा शम - भूषिताः । । ५ । ।
( इति )
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सिद्धि प्रिय स्तोत्र
- श्री देवनन्दिजी अपरनाम श्री पूज्यपाद
( वसन्ततिलका छन्द )
सिद्धि - प्रियै: प्रतिदिनं प्रतिभासमानै : ,
जन्म - प्रबन्ध - मथनै: प्रतिभाऽसमानै : |
श्रीनाभिराज - तनुभू - पद - वीक्षणेन,
प्रापे जनै - र्वितनु - भू - पदवी क्षणेन ||1||
येन स्मराऽस्त्र - निकरै - रपराजितेन ,
सिद्धिर्वधू धुव्रमबोधि पराऽजितेन |
संवृद्ध - धर्मसुधिया कविराजमा न : ,
क्षिप्रं करोतु यशसा स विराजमान: ||2||
श्रुत्वा वचांसि तव शम्भव ! कोमलानि,
नो तृप्यति प्रवर - शंभव! कोऽमलानि |
देव - प्रमुक्त - सुमनोऽभवनाऽऽशनानि,
स्वार्थस्य संसृति - मनोभव - नाशनानि ||3||
यस्मिन् विभाति कलहंस - रवैरशोक: ,
छिन्द्यात् स भिन्न - भव - मत्सर - वैर - शोक: |
देवोऽभिनन्दन - जिनो गुरु मेऽघ - जालम् ,
शम्पेव पर्वत - तटीं गुरु - मेघजाऽलम् ||4||
येन स्तुतोऽसि गत - कुन्तल - ताप - हार ! ,
चक्राऽसि - चाप - शर - कुन्तलताऽपहार ! |
भव्य प्रभो ! सुमतिनाथ ! वरा न तेन,
का माऽऽश्रिता सुमतिनाऽथ वरानतेन ||5||
मोह - प्रमाद - मद - कोप - रताऽपनाश :,
पञ्चेन्द्रियाऽर्थ - मदकोऽपर 1 - ताप - नाश : |
पद्मप्रभो दिशतु मे कमलां वराणाम् ,
मुक्तात्मनां 2 विगत - शोक - मलाऽम्बराणाम् ||6||
ये त्वां नमन्ति विनयेन मही - नभो - गा : ,
श्रीमत्सुपार्श्व ! विनयेन महीन - भोगा: |
ते भक्त - भव्य - सुरलोक ! वि-मान - माया : ,
ईशा भवन्ति सुरलोक - विमान - माया:||7||
आकर्ण्य तावक - वचो वनि - नायकोऽपि,
शान्तिं मन : शम - धियाऽवनि - नायकोऽपि |
चन्द्रप्रभ ! प्रभजति स्म रमाऽविनाशम् ,
दोर्द्दड - मण्डित - रति - स्मर - मा - विनाशम् ||8||
श्री पुष्पदन्त - जिन जन्मनि का ममाऽऽशा,
यामि प्रिये ! वितनुतां च निकाममाशा : |
इत्थं रतिं निगदताऽतनुना सुराणाम् ,
स्थानं व्यधायि हृदये तनुनाऽसुराणाम् ||9||
श्रीशीतलाऽधिप ! तवाऽधि - सभं जनानाम् ,
भव्यात्मनां प्रसृति - संसृति - भञ्जनानाम् |
प्रीतिं करोति वितता सुरसाऽरमुक्ति: ,
मुत्तात्मनां जिन! यथा सुरसार! मुक्ति: ||10||
पादद्वये मुदित - मानसमानतानाम् ,
श्रेयन! मुने! विगत - मान! समानतानाम् |
शोभां करोति तव कां च न भा सुराणाम् ,
देवाऽधिदेव! मणि - काञ्चन - भासुराणाम् ||11||
घोराऽन्धकार - नरक - क्षत - वारणानि,
श्री वासुपूज्य! जिनदक्ष! तवाऽरणानि |
मुक्त्यै भवन्ति भव - सागर - तारणानि,
वाक्यानि चित्तभव - सा - गरता - रणानि ||12||
भव्य - प्रजा - कुमुदिनी - विधुरञ्जनानाम् ,
हन्ता विभासि दलयन् विधुरं जनानाम् |
इत्थं स्वरूपमखिलं तव ये विदन्ति,
राज्यं भजन्ति विमलेश्वर! ते वि - दन्ति ||13||
स्वर्गाऽपवर्ग - सुख - पात्र! जिनाऽतिमात्रम् ,
यस्त्वां स्मरन् भुवन - मित्र! जिनाति मात्रम् |
श्रीमन्ननन्त वर - निवृति - कान्त! कान्ताम् ,
भव्य: स याति पदवीं व्रातिकाऽन्त - कान्ताम् ||14|||
जन्माऽभिषेकमकरोत् सुर - राज - नामा -
यस्याऽऽश्रितो गुण - गुणै: सु - रराज नाऽमा |
धर्म: करोत्वनलसं प्रतिबोधनानि,
सिद्धयै स न: सपदि सम्प्रति वो धनानि ||15||
नाऽस्तानि यानि महसा विधुनाऽमितानि,
चेतस्तमांसि तपसा विधुनोमि तानि |
इत्याऽऽचरन् वर - तपो गत कामि नीति,
शान्ति: पद दिशतु मेऽगत - कामिनीति ||16||
कुन्थु: क्षितौ क्षिति - पतिर्गत - मान - सेन: ,
पर्वं पुनर्मुनिरभूद्धत - मानसेन:
योऽसौ करोतु मम जन्तु - दया - निधीनाम् ,
संवर्द्धनानि विविधर्द्धयुदयानि धीनाम् ||17||
या ते ऋणोति नितरामुदितानि दानम् ,
यच्छत्य - भीप्सति न वा मुदिता निदानम् |
सा नो करोति जनताऽजन - कोपिताऽपि,
चित्तं जिनाऽर! गुण - भाजन! कोपि तापि ||18||
मल्लेर्वचांस्यनिकृतीनि स - भावनानि,
धर्मोपदेशन - कृतीनि सभाऽवनानि |
कुर्वन्तु भव्य - निवहस्य नभोगतानाम् ,
मक्षु श्रियं कृत - मुदं जन - भोग - तानाम् ||19||
संस्तूयसे शुभवता मुनि - नायकेन,
नीतो जिनाऽऽशु भवता मुनिनायकेन !
नाथेन नाथ! मुनिसुव्रत ! मुक्तमानाम् ,
मुक्तिं चरन् स मुनिसुव्रतमुक्तिमानाम् ||20||
चित्तेन मेरु - गिरि - धीर! दयालुनाऽसि,
सर्वोपकार - कृत धीरदया लुनासि |
इत्थं स्तुतो नमि - मुनि - र्ममताऽपसानाम्,
लक्ष्मीं करोतु मम निर्मम ! तापसानाम् ||21||
येनोद्यऋङ्गगिरनारगिराविनाऽपि,
नेमि: स्तुतोऽपि पशुनाऽपि गिरा विनाऽपि |
कन्दर्प - दर्प - दलन: क्षत - मोह - तान:,
त्सय श्रियो दिशतु दक्षतमोऽहता न: ||22||
गन्धर्व - यक्ष - नर - किन्नर - दृश्यमान: ,
प्रीतिं करिष्यति न किं नर - दृश्यमान: |
भानु - प्रभा - प्रविकसत्कमलोपमायाम् ,
पार्श्व: प्रसूत - जनता - कमलोऽपमायाम् ||23||
श्री वर्द्धमान - वचसा पर -मा - करेण,
रत्नत्रयोत्तम - निधे: परमाऽऽक्रेण |
कुर्वन्ति यानि मुनयोऽजनता हि तानि,
वृत्तानि सन्तु सततं जनता - हितानि ||24||
वृत्तात्समुल्लसित - चित्त - वच: प्रसूते: ,
श्रीदेवन्दिमुनि - चित्त - वच: प्रसूते: |
य: पाठकोऽल्पतर - जल्प - कृतेस्त्रिसन्ध्यम् ,
लोकत्रयं समनुरञ्जयति त्रिसन्ध्यम् ||25||
( शार्दूल विक्रिडित छन्द )
तुष्टिं देशनया जनस्य मनसो, येन स्थितं दित्सता,
सर्वं वस्तु - विजानता शमवता, येन क्षता कृच्छ्ता |
भव्याऽऽनन्द - करेण येन महती, तत्त्व - प्रणीति: कृता,
तापं हन्तु जिन: स मे शुभधियां, तात: सतामीशिता ||26||
(इति)
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चैत्यालयाष्टक स्तोत्रम् ( दृष्टाष्टक )
- सम्भावित सकलचन्द्र जी मुनीन्द्र
( बसन्ततिलका छन्द )
दृष्टं जिनेन्द्र - भवनं भव - ताप - हारि ,
भव्यात्मनां विभव - सम्भव - भूरि - हेतु ।
दुग्धाब्धि - फेन - धवलोज्ज्वल - कूट - कोटी ,
नद्ध - ध्वज - प्रकर - राजि - विराजमानम् ॥ १ ॥
दृष्टं जिनेन्द्र - भवनं भुवनैक - लक्ष्मी -
धामर्द्धि - वर्धित - महामुनि - सेव्यमानम् ।
विद्याधरामर - वधू - जन - पुष्प 1 - दिव्य -
पुष्पाञ्जलि - प्रकर - शोभित - भूमि - भागम् ॥ २ ॥ .
दृष्टं जिनेन्द्र भवनं भवनादि वास -
विख्यात - नाक - गणिका - गण - गीयमानम् ।
नाना - मणि - प्रचय - भासुर - रश्मि - जाल -
व्यालीढ निर्मल - विशाल - गवाक्ष - जालम् ॥ ३ ॥
दृष्टं जिनेन्द्र - भवनं सुर - सिद्ध - यक्ष -
गन्धर्व - किन्नर - करार्पित - वेणु - वीणा ।
सङ्गीत - मिश्रित - नमस्कृत - धीर - नादै -
रापूरिताम्बर - तलोरु - दिगन्तरालम् ॥ ४ ॥
दृष्टं जिनेन्द्र - भवनं विलसद् - विलोल -
माला - कुलालि - ललितालक - विभ्रमाणाम् ।
माधुर्य - वाद्य - लय - नृत्य - विलासिनीनां ,
लीला - चलद् - वलय - नूपुर - नाद - रम्यम् । । ५ ।
दृष्टं जिनेन्द्र - भवनं मणि - रत्न - हेम -
सारोज्ज्वलैः कलश - चामर - दर्पणाद्यैः ।
सन्मङ्गलैः सतत् - मष्ट - शत - प्रभेदैर् -
विभ्राजितं विमल - मौक्तिक - दाम - शोभम् ॥ ६ ॥
दृष्टं जिनेन्द्र - भवनं - वर - देवदारू -
कर्पूर - चन्दन - तरुष्क - सुगन्धि - धूपैः ।
मेघायमान - गगने पवनाभिघात -
चञ्चच् - चलद् - विमल - केतन - तुङ्ग - शालम् ॥ ७ ॥
दृष्टं जिनेन्द्र - भवनं - धवलातपत्रच् -
छाया - निमग्न - तनु - यक्षकुमार - वृन्दः ।
दोधूयमान - सित - चामर - पङ्क्ति - भासं ,
भामण्डल - द्युति - युत - प्रतिमाभिरामम् ॥ ८ ॥
दृष्टं जिनेन्द्र भवनं विविध - प्रकार -
पुष्पोपहार - रमणीय - सुरत्न - भूमिं ।
नित्यं वसन्त - तिलक - श्रिय मादधानं ,
सन् - मङ्गलं सकल - चन्द्र - मुनीन्द्र - वन्द्यम् ॥ ९ ॥
दृष्टं मयाद्य मणि - काञ्चन - चित्र - तुङ्ग ,
सिंहासनादि - जिनबिम्ब - विभूति युक्तम् ।
चैत्यालयं यदतुलं परिकीर्तितं मे ,
सन् - मङ्गलं सकल - चन्द्र - मुनीन्द्र - वन्द्यम् ॥ १० ॥
( इति )
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गणधर वलय स्तोत्र
-आ . श्री सकल कीर्ति जी
( आर्या छन्द )
जिनान् जिताराति - गणान् गरिष्ठान् ,
देशावधीन् सर्व - परावधींश्च ।
सत् - कोष्ठ - बीजादि - पदानुसारीन् ।
स्तुवे गणेशानपि तद् - गुणाप्त्यै ॥ 1 ॥
सम्भिन्न - श्रोत्रान् - वित - सन् - मुनीन्द्रान् ,
प्रत्येक - सम्बोधित बुद्ध - धर्मान् ।
स्वयं - प्रबुद्धांश्च विमुक्ति - मार्गान् ,
स्तुवे गणेशानपि तद् - गुणाप्त्यै ॥ 2 ॥
द्विधा - मनः पर्यय - चित् - प्रयुक्तान् ,
द्विपञ्च - सप्तद्वय - पूर्व - सक्तान् ।
अष्टाङ्ग नैमित्तिक शास्त्र - दक्षान् ,
स्तुवे गणेशानपि तद् - गुणाप्त्यै ॥ 3 ॥
विकुर्वणाख्यर्द्धि - महा - प्रभावान् ,
विद्याधरांश्चारण - ऋद्धि - प्राप्तान् ।
प्रज्ञाश्रितान् नित्य - ख - गामिनश्च ,
स्तुवे गणेशानपि तद् - गुणाप्त्यै ॥ 4 ॥
आशी र्विषान् दृष्टि - विषान् मुनीन्द्रा -
नुग्राति - दीप्तोत्तम - तप्त - तप्तान् ।
महातिघोर - प्रतपः प्रसक्तान् ,
स्तुवे गणेशानपि तद् - गुणाप्त्यै ॥ 5 ॥
वन्द्यान् सुरै -र्घोर - गुणांश्च लोके ,
पूज्यान् बुधै - र्घोर - पराक्रमांश्च ।
घोरादि - संसद् - गुण - ब्रह्म - युक्तान् ,
स्तुवे गणेशानपि तद् - गुणाप्त्यै ॥ 6 ॥
आमर्द्धि - खेलर्द्धि - प्रजल्ल - विडर्द्धि -
सर्वर्द्धि - प्राप्तांश्च व्यथादि - हंतृन् ।
मनो - वचः काय - बलोपयुक्तान् ,
स्तुवे गणेशानपि - तद् - गुणाप्त्यै ॥ 7 ॥
सत् क्षीर - सर्पि - र्मधुरामृतर्द्धीन् ,
यतीन् वराक्षीण - महानसांश्च ।
प्रवर्धमानांस्त्रिजगत् - प्रपूज्यान् ,
स्तुवे गणेशानपि तद् - गुणाप्त्यै ॥ 8 ॥
सिद्धालयान् श्रीमहतोऽतिवीरान् ,
श्री वर्द्धमानर्द्धि - विबुद्धि - दक्षान् ।
सर्वान् मुनीन् मुक्तिवरा - नृषीन्द्रान् ,
स्तुवे गणेशानपि तद् - गुणाप्त्यै ॥ 9 ॥
नृ - सुर - खचर - सेव्या विश्व - श्रेष्ठर्द्धि - भूषा ,
विविध - गुण - समुद्रा मार - मातङ्ग - सिंहाः ।
भव - जल - निधि - पोता वन्दिता मे दिशन्तु ,
मुनिगण - सकलाः श्री - सिद्धिदाः सदृषीन्द्राः ॥ 10 ॥
( अनुष्टुप छन्द )
नित्यं यो गणभ्रन् - मन्त्र , विशुद्धसन् जपत्यमुम् ।
आस्रवस्तस्य पुण्यानां , निर्जरा पापकर्मणाम् ॥
नश्यादुपद्रवकश्चिद् , व्याधिभूत विषादिभिः ।
सदसत् वीक्षणे स्वप्ने , समाधिश्च भवेन्मृतो ॥
( इति गणधर वलय - स्तोत्र )
( आ . श्री सकलकीर्ति जी कृत गणधरलयपूजा ' से लिया )
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ऋद्धि मन्त्र
अथ प्रतिक्रमण - दण्डक
णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ 1 ॥
णमो जिणाणं , णमो ओहि जिणाणं ,
णमो परमोहि - जिणाणं , णमो सव्वोहि - जिणाणं ,
णमो अणंतोहि - जिणाणं , णमो कोट्ठ - बुद्धीणं ,
णमो बीज - बुद्धीणं , णमो पादाणु - सारीणं ,
णमो संभिण्ण - सोदारणं , णमो सयं - बुद्धाणं ,
णमो पत्तेय - बुद्धाणं , णमो बोहिय - बुद्धाणं ,
णमो उजुमदीणं , णमो विउल - मदीणं ,
णमो दस पुवीणं , णमो चउदस पुव्वीणं ,
णमो अट्ठंग - महाणिमित्त - कुसलाणं ,
णमो विउव्वइड्ढि - पत्ताणं ,
णमो विज्जाहराणं , णमो चारणाणं ,
णमो पण्ण - समणाणं , णमो आगास - गामीणं ,
णमो आसी - विसाणं , णमो दिट्ठिविसाणं ,
णमो उग्ग तवाणं , णमो दित्त - तवाणं ,
णमो तत्त - तवाणं , णमो महा तवाणं ,
णमो घोर - तवाणं , णमो घोर - गुणाणं ,
णमो घोर परक्कमाणं , णमो घोर - गुण - बंभयारीणं ,
णमो आमोसहि - पत्ताणं , णमो खेल्लोसहि - पत्ताणं ,
णमो जल्लो सहि - पत्ताणं , णमो विप्पोसहि - पत्ताणं ,
णमो सव्वोसहि - पत्ताणं , णमो मण - बलीणं ,
णमो वचि - बलीणं , णमो काय - बलीणं ,
णमो खीर - सवीणं , णमो सप्पि - सवीणं ,
णमो महुर सवीणं , णमो अमिय - सवीणं ,
णमो अक्खीण महाणसाणं , णमो वड्ढमाणाणं ,
णमो सिद्धायदणाणं ,
णमो भयवदो - महदि - महावीर - वड्ढमाण बुद्ध - रिसीणो चेदि ।
( गाहा )
जस्संतियं धम्म - पहं णियच्छे , तस्संतियं वेणइयं पउंजे ।
काएण वाचा मणसा वि णिच्चं , सक्कारए तं सिर - पंचमेण ॥1॥
( इति )
( " श्री भूतबलि आचार्य जी " विरचित षट्खण्डागम - धवला पुस्तक 9 से )
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आत्म भावनाष्टक
- श्री बालचन्द्र जी
( मालिनी छन्द )
अनुपम - गुणाकोशं , छिन्नलोभोदि - पाशम् ,
वनभुवन - समानं , केवलज्ञान - मानम् |
विनमदमर - वृन्दं , सच्चिदानन्द - कन्दम् ,
जिनबल - समतत्वं , भावयाम्यात्म - तत्त्वम् ||1||
रहित - सकलमोहं , मुक्त - संसार - दाहम् ,
प्रहत - वितत - मार्गं , क्षीणनोकर्म - मार्गम |
सहज - चरणसारं , जन्म - वाराशि - पारं ,
स्वहित - परिणतत्वं, भावयाम्यात्व तत्त्वम् ||2||
अमृत - सुखमनन्तं , निश्चलं मुक्ति कान्तं ,
शमित - खलकषायं , लब्ध - मुक्त्यभ्युपायम् |
दमित - करणादन्ति , प्राप्त - दुष्कर्मशान्तिम् ,
भ्रमण - विरहितत्वं , भावयाम्यात्म - तत्त्वम् ||3||
अकुटिल - गतियुक्तं , भाव - कर्मातिरिक्तं ,
सकल - विमलबोधं , ध्वस्त - संसार - बाधं |
प्रकटित - निजधर्मं , नित्य - चैतन्यशर्मं ,
विकृति - विरहितत्वं , भावयाम्यात्म - तत्त्वम् ||4||
प्रवर - गुणकदम्बं , द्रव्य - कर्माद्रिशम्बं ,
भववननिधि - पोतं , शुद्धचित्त - स्वाभावं |
शिवसुख - सुचरित्रं , घातिवल्लील - वित्रं ,
नवमर - सकतत्वं , भावयाम्यात्म - तत्त्वम् ||5||
स्मर - कमल - शशाङ्कं , शुष्क - दुष्कर्म - पङ्कं ,
करण - तिमिर - भानुं , मुक्ति - शैलेन्द्र - सानुम् |
स्थिरतर - सुखरूपं , नष्ट - कामोग्र - तापं ,
विरहित - परतत्वं , भावयाम्यात्म - तत्त्वम् ||6||
अजरममर - मेकं , विश्व - लोकावलोकं ,
निजरूचि - मणिदोपं , शान्त - कर्माग्नि - तापम् |
सुजन - जनवसन्तं , मोक्षलक्ष्मी - निकेतं ,
त्रिजगति - परतत्वं , भावयाम्यात्म - तत्त्वम् ||7||
त्रिदशनुत - मनिन्द्यं , जैनयोगीन्द्र - वन्द्यं ,
मधुर - यमल - दूरं - शाश्वतानन्द - पूरम् |
चिदमल - गुणमूर्तिः बालचन्द्रोरु - कीर्तिः ,
विदित - सकल - तत्वं , भावयाम्यात्म - तत्त्वम् ||8||
( इति )
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दर्शन पाठ
- श्री बुधजन
( दोहा )
तुम निरखत मुझको मिली , मेरी सम्पति आज ।
कहाँ चक्रवर्ति - सम्पदा , कहाँ स्वर्ग - साम्राज ॥ १ ॥
तुम वन्दत जिनदेव जी , नित नव मङ्गल होय ।
विघ्न कोटि तत छिन टरैं , लहहिं सुजस सब लोय ॥ २ ॥
तुम जाने बिन नाथ जी , एक श्वांस के माहिं ।
जन्म - मरण अठदस किये , साता पाई नाहिं ॥ ३ ॥
आप बिना पूजत लहे , दुःख नरक के बीच ।
भूख प्यास पशुगति सही , कर्यो निरादर नीच ॥ ४ ॥
नाम उचारत सुख लहै , दर्शन सों अघ जाय ।
पूजत पावै देव पद , ऐसे हैं जिनराज ॥ ५ ॥
वन्दत हूँ जिनराज मैं , धर उर समता भाव ।
तन धन जन - जग जाल तैं , धर विरागता भाव ॥ ६ ॥
सुनो अरज हे ! नाथ जी , त्रिभुवन के आधार ।
दुष्ट कर्म का नाश - कर , वेगि करो उद्धार ॥ ७ ॥
जाचत हूँ मैं आपसों , मेरे जियके माहिं ।
राग द्वेष की कल्पना , क्यों हूँ उपजै नाहिं ॥ ८ ॥
अति अद्भुत प्रभुता लखी , वीतरागता माहिं ।
विमुख होहिं ते दुःख लहैं , सन्मुख सुखी लखाहिं ॥ ९ ॥
कलमल कोटिक नहिं रहैं , निरखत ही जिनदेव ।
ज्यों रवि ऊगत जगत् में , हरै तिमिर स्वयमेव ॥ १० ॥
परमाणु पुद्गल तणी , परमातम सञ्जोग ।
भई पूज्य सब लोक में , हरै जन्म का रोग ॥ ११ ॥
कोटि जन्म में कर्म जो , बाँधे हुये अनन्त ।
ते तुम छवि विलोकते , छिन में हो हैं अन्त ॥ १२ ॥
आन नृपति किरपा करै , तब कछु दे धन धान ।
तुम प्रभु अपने भक्त को , करल्यो आप समान ॥ १३ ॥
यन्त्र मन्त्र मणि औषधी , विषहर राखत प्रान ।
त्यों जिनछवि सब भ्रम हरै , करैं सर्व परधान ॥ १४ ॥
त्रिभुवनपति हो ताहि तैं , छत्र विराजैं तीन ।
सुरपति नाग नरेश पद , रहें चरन आधीन ॥ १५ ॥
भवि निरखत भव आपने , तुव भामण्डल बीच ।
भ्रम मेटैं समता गहै , नाहिं सहै गति नीच ॥ १६ ॥
दोइ ओर ढोरत अमर , चौंसठ चमर सफेद ।
निरखत भविजन का हरैं , भव अनेक का खेद ॥ १७ ॥
तरु अशोक तुव हरत है , भवि - जीवन का शोक ।
आकुलता कुल मेटि कें , करें निराकुल लोक ॥ १८ ॥
अन्तर बाहिर परिगहन , त्यागा सकल समाज ।
सिंहासन पर रहत हैं , अन्तरीक्ष जिनराज ॥ १९ ॥
जीत भई रिपु मोहतैं , यश सूचत है तास ।
देव दुन्दुभिन के सदा , बाजे बजैं अकाश ॥ २० ॥
बिन अक्षर इच्छा रहित , रुचिर दिव्यध्वनि होय ।
सुर नर पशु समझैं सबै , संशय रहै न कोय ॥ २१ ॥
बरसत सुरतरु के कुसुम , गुञ्जत अलि चहुँ ओर ।
फैलत सुजस सुवासना , हरषत भवि सब ठौर ॥ २२ ॥
समुद्र बाघ अरु रोग अहि , अर्गल बन्ध सङ्ग्राम ।
विघ्न विषम सबही टरैं , सुमरत ही जिननाम ॥ २३ ॥
श्रीपाल , चण्डाल पुनि , अञ्जन , भीलकुमार ।
हाथी हरि अरि सब तरे , आज हमारी बार ॥ २४ ॥
' बुधजन ' यह विनती करै , हाथ जोड़ शिर नाय ।
जबलौं शिव नहिं होय , तुम भक्ति हृदय अधिकाय ॥ २५ ॥
( इति )
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रत्नाकर - पञ्चविंशतिका
- श्री रत्नाकर सूरि विरचित ( हिन्दी पद्यानुवाद - श्री रामचरित उपाध्याय )
( )
शुभ - केलि के आनन्द के , धन के मनोहर धाम हो ,
नरनाथ से सुरनाथ से , पूजित चरण गतकाम हो ।
सर्वज्ञ हो , सर्वोच्च हो , सबसे सदा संसार में ,
प्रज्ञा कला के सिन्धु हो , आदर्श हो आचार में ॥ १ ॥
संसार - दुख के वैद्य हो , त्रैलोक्य के आधार हो ,
जय श्रीश ! रत्नाकर प्रभो ! अनुपम कृपा - अवतार हो ।
गत राग ! है विज्ञप्ति मेरी , मुग्ध की सुन लीजिए ,
क्योंकि प्रभो ! तुम विज्ञ हो , मुझको अभय वर दीजिए ॥ २ ॥
माता - पिता के सामने , बोली सुनाकर तोतली ,
करता नहीं क्या अज्ञ बालक , बाल्य - वश लीलावली ।
अपने हृदय के हाल को , त्यों ही यथोचित रीति से ,
मैं कह रहा हूँ आपके , आगे विनय से प्रीति से ॥ ३ ॥
मैंने नहीं जग में कभी कुछ , दान दीनों को दिया ,
मैं सच्चरित भी हूँ नहीं , मैंने नहीं तप भी किया ।
शुभ भावनाएँ भी हुईं , अब तक न इस संसार में ,
मैं घूमता हूँ व्यर्थ ही , भ्रम से भवोदधि - धार में ॥ ४ ॥
क्रोधाग्नि से मैं रात - दिन , हा ! जल रहा हूँ हे प्रभो ! ,
मैं लोभ नामक साँप से , काटा गया हूँ हे विभो ! |
अभिमान के खल ग्राह से , अज्ञान वश मैं ग्रस्त हूँ ,
किस भाँति हों स्मृत आप , माया - जाल से मैं व्यस्त हूँ ॥ ५ ॥
लोकेश ! पर - हित भी किया , मैंने न दोनों लोक में ,
सुख - लेश भी फिर क्यों मुझे हो , झींकता हूँ शोक में ।
जग में हमारे से नरों का , जन्म ही बस व्यर्थ है ,
मानों जिनेश्वर ! वह भवों की , पूर्णता के अर्थ है ॥ ६ ॥
प्रभु ! आपने निज मुख सुधा का , दान यद्यपि दे दिया ,
यह ठीक है पर चित्त ने , उसका न कुछ भी फल लिया |
आनन्द - रस में डूबकर , सद्वृत्त वह होता नहीं ,
है वज्र सा मेरा हृदय , कारण बड़ा बस है यही ॥ ७ ॥
रत्नत्रयी दुष्प्राप्य है , प्रभु से उसे मैंने लिया ,
बहु काल तक बह बार जब , जग का भ्रमण मैने किया ।
हा ! खो गया वह भी विवश , मैं नींद आलस के रहा ,
बतलाइये उसके लिए रोऊँ , प्रभो ! किसके यहाँ ॥ ८ ॥
संसार ठगने के लिए , वैराग्य को धारण किया ,
जग को रिझाने के लिए , उपदेश धर्मों का दिया ।
झगड़ा मचाने के लिए , मम जीभ पर विद्या बसी ,
निर्लज्ज हो कितनी उड़ाऊँ , हे प्रभो ! अपनी हँसी ॥ ९ ॥
परदोष को कह कर सदा , मेरा वदन दृषित हुआ ,
लख कर पराई नारियों को , हा ! नयन दूषित हुआ ।
मन भी मलिन है सोचकर , पर की बुराई हे प्रभो ,
किस भाँति होगी लोक में , मेरी भलाई हे प्रभो ॥ १० ॥
मैंने बढ़ाई निज विवशता हो , अवस्था के वशी ,
भक्षक रतीश्वर से हुई , उत्पन्न जो दुख - राक्षसी ।
हा ! आपके सम्मुख उसे , अति लाज से प्रकटित किया ,
सर्वज्ञ ! हो सब जानते , स्वयमेव संसृति की क्रिया ॥ ११ ॥
अन्यान्य मन्त्रों से परम , परमेष्ठि - मन्त्र हटा दिया ,
सच्छास्त्र - वाक्यों को कुशास्त्रों , से दबा मैंने दिया ।
विधि - उदय को करने वृथा , मैंने कुदेवाश्रय लिया ,
हे नाथ ! यों भ्रमवश अहित मैंने नहीं क्या क्या किया ॥ १२ ॥
हा ! तज दिया मैंने प्रभो ! प्रत्यक्ष पाकर आपको ,
अज्ञान वश मैंने किया , फिर देखिये किस पाप को ।
वामाक्षियों के राग में , रत हो सदा मरता रहा ,
उनके विलासों के हृदय में , ध्यान को धरता रहा ॥ १३ ॥
लख कर चपल - दृग - युवतियों , के मुख मनोहर रस मई ,
जो मन - पटल पर राग भावों , की मलिनता बस गई ।
वह शास्त्र - निधि के शुद्ध जल से , भी न क्यों धोई गई ?
बतलाइए यह आप ही , मम बुद्धि तो खोई गई ॥ १४ ॥
मझमें न अपने अङ्ग के , सौन्दर्य का आभास है ,
मुझमें न गुणगण है विमल , न कला - कलाप - विलास है ।
प्रभुता न मुझमें स्वप्न को भी , चमकती है देखिये ,
तो भी भरा हूँ गर्व से , मैं मूढ़ हो किसके लिए ॥ १५ ॥
हा ! नित्य घटती आयु है , पर पाप - मति घटती नहीं ,
आई बढौती पर विषय से , कामना हटती नहीं ।
मैं यत्न करता हूँ दवा मैं , धर्म मैं करता नहीं ,
दर्मोह - महिमा से ग्रसित हूँ , नाथ ! बच सकता नहीं ॥ १६ ॥
अघ - पुण्य को , भव - आत्म को , मैंने कभी माना नहीं ,
हो आप आगे हैं खड़े , दिननाथ से यद्यपि यहीं ।
तो भी खलों के वाक्य को , मैंने सुना कानों वृथा ,
धिक्कार मुझको है गया , मम जन्म ही मानों वृथा ॥ १७ ॥
सत्पात्र - पूजन देव - पूजन , कुछ नहीं मैंने किया ,
मुनि धर्म श्रावक धर्म का भी , नहिं सविधि पालन किया ।
नर - जन्म पाकर भी वृथा ही , मैं उसे खोता रहा ,
मानो अकेला घोर वन में , व्यर्थ ही रोता रहा ॥ १८ ॥
प्रत्यक्ष सुखकर जिन - धरम में , प्रीति मेरी थी नहीं ।
जिननाथ ! मेरी देखिये है , मूढ़ता भारी यही ।
हा । कामधुक कल्पद्रुमादिक , के यहाँ रहते हुए ।
हमने गँवाया जन्म को , धिक्कार दुख सहते हुए ॥ १९ ॥
मैंने न रोका रोग - दुख , सम्भोग - सुख देखा किया ।
मन में न माना मृत्यु - भय , धन - लाभ ही लेखा किया ।
हा ! मैं अधम युवती - जनों का , ध्यान नित करता रहा ,
पर नरक - कारागार से , मन में न मैं डरता रहा ॥ २० ॥
सद्वृत्ति से मन में न मैंने , साधुता हा साधिता ,
उपकार करके कीर्ति भी , मैंने नहीं कुछ अर्जिता ।
शुभ तीर्थ के उद्धार आदिक , कार्य कर पाये नहीं ,
नर - जन्म पारस - तुल्य निज , मैंने गँवाया व्यर्थ ही ॥ २१ ॥
शास्त्रोक्त विधि वैराग्य भी , करना मुझे आता नहीं ,
खल - वाक्य भी गतक्रोध हो , सहना मुझे आता नहीं ।
अध्यात्म - विद्या है न मुझमें , है न कोई सत्कला ,
फिर देव ! कैसे यह भवोदधि , पार होवेगा भला ? ॥ २२ ॥
सत्कर्म पहले जन्म में , मैंने किया कोई नहीं ,
आशा नहीं जन्मान्य में , उसको करूँगा मैं कहीं ।
इस भाँति का यदि हूँ जिनेश्वर ! क्यों न मुझको कष्ट हों ?
संसार में फिर जन्म तीनों , क्यों न मेरे नष्ट हों ? ॥ २३ ॥
हे पूज्य ! अपने चरित को , बहुभाँति गाऊँ क्या वृथा ,
कुछ भी नहीं तुमसे छिपी , है पाप मय मेरी कथा ।
क्योंकि त्रिजग के रूप हो , तुम ईश हो , सर्वज्ञ हो ,
पथ के प्रदर्शक हो तुम्हीं , मम चित्त के मर्मज्ञ हो ॥ २४ ॥
( )
दीनोद्धारक धीर हे प्रभु ! आप सा नहीं अन्य है ,
कृपा - पात्र भी नाथ ! न मुझसा अपर कहीं है ।
तो भी माँगू नहीं धान्य धन कभी भूल कर ,
अर्हन् ! प्राप्त होवे केवल , बोधिरत्न ही मंगलकर । ।
( दोहा )
श्रीरत्नाकर गुणगान यह , दुरित दुःख सबके हरे ।
बस एक यही है प्रार्थना , मङ्गलमय जग को करे ॥ २५ ॥
( इति )
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पखवाड़ा
( तिथि षोडशी )
- द्यानतराय कृत
( दोहा )
बानी एक नमों सदा , एक दरब आकाश ।
एक धर्म अधर्म दरब , " पड़िवा ' शुद्धि प्रकाश ।
( चौपाई )
दोज दु भेद सिद्ध संसार , संसारी त्रस - थावर धार ।
स्व - पर दया दोनों मन धरो , राग - दोष तजि समता करो ||2||
तीज त्रिपात्र दान नित भजो , तीन काल सामायिक सजी ।
व्यय - उत्पाद - धौव्य पद साध , मन - वच - तन थिर होय समाध ॥ ३ ॥
चौथ चार विधि दान विचार , चारयो आराधना सभार ।
मैत्री आदि भावना चार , चार बंध सों भिन्न निहाराहा ||4||
पाँचें पञ्च लब्धि लहि जीव , भज परमेष्ठी पञ्च सदीव ।
पाँच भेद स्वाध्याय बखान , पाँचों पैताले पहचान । । ५ । ।
छठ छः लेश्या के परिनाम , पूजा आदि करो षट् काम ।
पुद्गल के जानो षट् - भेद , छहों काल लखिकै सुख वेद ॥ ६ ॥
सातै सात नरकनै डरो , सातों खेत धन जन सों भरो ।
सातों नय समझो गुणवंत , सात तत्त्व सरथा करि संता ॥ 7||
आठैं आठ दरस के अङ्ग , ज्ञान आठ - विधि गहो अभंग ।
आठ - भेद पूजा जिनराय , आठ - योग कीजै मन लाय ॥ ८ ॥
नौमी शील बाडि नौ पाल , प्रायश्चित नौ - भेद संभाल |
नौ हायिक गुण मन में राख , नौ कवाय की तज अभिलाख ||9||
दशमी दश पुद्गल परजाय , दशौं बंध हर चेतन राय |
जनमत दश अतिशय जिनराज , दशविध परिग्रह सों क्या काज ||10||
ग्यारस ग्यारह भाव समाज , सब अहमिंदर ग्यारह राज |
ग्यारह लोक सुर लोक मंझार , ग्यारह अंग पढ़ैं मुनि सार ||11||
बारस बारह विधि उपयोग , बारह प्रकृति दोष का रोगा |
बारह चक्रवर्ति लख लेहु , बारह अविरत को तजि देह ॥ १२ ॥
तेरस तेरह श्रावक थान , तेरह भेद मनुष पहचान ।
तेरह राग प्रकृति सब निंद , तेरह भाव अयोग जिनन्द ॥ १३ ॥
चौदह चौदह पूरव जान , चौदह बाहिज - अंग बखान ।
चौदह अंतर - परिग्रह डार , चौदह जीव समास विचार । । १४ ॥
मावस सम पन्द्रह परमाद , करम भूमि पंद्रह अनादा |
पंच शरीर पंद्रह रूप , पंद्रह प्रकृति हरै मुनि भूप ॥ १५ ॥
पूरनमासी सोलह ध्यान , सोलह स्वर्ग कहे भगवान ।
सोलह कषाय राहु घटाय , सोलह कला सम भावना भाय ॥ १६ ॥
सब चर्चा की चर्चा एक , आतम आतम पर पर टेक |
लाख कोटि - ग्रन्थन को सार , भेद ज्ञान अरु दया विचार ||17||
( दोहा )
गुण विलास सब तिथि कही , हैं परमारथ रूप ।
पद सुनै जो मन धरै , उपजै जान अनूप । ।
( इति )
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संकटहरण विनती
- श्री वृंदावन जी
( )
हो दीन बन्धु श्रीपति , करुणानिधानजी ।
अब मेरी विथा क्यों न हरो , बार क्या लगी । ।
मालिक हो दो जहान के जिनराज आपही ।
ऐबो हनर हमारा तुमसे छिपा नहीं । ।
बेजान में गुनाह मुझसे बन गया सही ।
कंकरी के चोर को कटार मारिये नहीं । हो दीन . . . । । 1 । ।
दुःख - दर्द दिल का आपसे , जिसने कहा सही ।
मुश्किल कहर बहर से लिया है भुजा गही ।
सब वेद औ पुराण में प्रमाण है यही ।
आनंदकंद श्री जिनेन्द्रदेव है तुही । हो दीन . । । 2 । ।
हाथी पै चढ़ी जाती थी सुलोचना सती ।
गंगा में ग्राह ने गही गजराज की गति । ।
उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती ।
भय टार के उबार लिया है कृपापती ॥ हो दीन . ॥ 3 ॥
पावक प्रचंड कुण्ड में उमण्ड जब रहा ।
सीता से शपथ लेने को तब राम ने कहा ।
तुम ध्यान धार जानकी पग धारती तहाँ ।
तत्काल ही सर स्वच्छ हुआ कमल लहलहा ॥ हो दीन . ॥ 4 ॥
जब द्रौपदी का चीर दुशासन ने था गहा ।
सब ही सभा के लोग थे कहते हहा - हहा ।
उस वक्त भीर पीर में तुमने करी सहा ।
पर्दा ढका सती का सुयश जगत में रहा । हो दीन . ॥ 5 ॥
श्रीपाल को सागर विर्षे जब सेठ गिराया ।
उसकी रमा से रमने को आया वो बेहया । ।
उस वक्त के संकट में सती तुमको जो ध्याया ।
दुःख दंद फंद मेटके आनन्द बढ़ाया । हो दीन . । । 6 । ।
हरिषेण की माता को जब सोत सताया ।
रथ जैन का तेरा चले पीछे यों बताया ।
उस वक्त के अनशन में सती तुमको जो ध्याया ।
चक्रेश हो सुत उसके ने रथ जैन चलाया । हो दीन . ॥ 7 ॥
सम्यक्त्व शुद्ध शीलवती चंदना सती ।
जिसके नगीच लगती थी जाहिर रती - रती ॥
बेड़ी में पड़ी थी तुम्हें जब ध्यावती हती ।
तब वीर धीर ने हरी दुःखदंद की गति ॥ हो दीन . ॥ 8 ॥
जब अंजना सती को हुआ गर्भ उजारा ।
तब सास ने कलंक लगा घर से निकारा ॥
वन वर्ग के उपसर्ग में तब तुमको चितारा ।
प्रभु भक्त व्यक्त जानकै भय देव निवारा ॥ हो दीन . ॥ 9 ॥
सोमा से कहा जो तू सती शील विशाल ।
तो कुंभ तें निकाल भला नाग जु काला । ।
उस वक्त तुम्हें ध्याय के सती हाथ जो डाला ।
तत्काल ही वह नाग हुआ फूल की माला ॥ हो दीन . | | 10 | |
जब कुष्ठरोग था हुआ श्रीपाल राज को ।
मैना सती की आपकी पूजा इलाज को ।
तत्काल ही सुन्दर किया श्रीपालराज को ।
वह राजभोग भाग गया मुक्तिराज को । हो दीन . | 11 | |
जब सेतसुदर्शन को गा दोष लगाया ।
रानी के कहे भूप शली पे चढ़ाया । ।
उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज ध्यान में ध्याया ।
शूली से उतार उसको सिंहासन पै बिठाया । । हो दीन . । । 12 । ।
जब सेठ सुधन्नाजी को वापी में गिराया ।
ऊपर से दुष्ट फिर उसे वह मारने आया । ।
उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज ध्यान में ध्याया ।
तत्काल ही जंजाल से तब उसको बचाया ॥ हो दीन . ॥ 13 ॥
इक सेठ के घर में किया दारिद्र ने डेरा ।
भोजन का ठिकाना भी न था सांझ सवेरा ॥
उस वक्त तुम्हें सेठ ने जब ध्यान में घेरा ।
घर उसके में तब कर दिया लक्ष्मी का बसेरा ॥ हो दीन . ॥ 14 ॥
बलि वाद में मुनिराज सों जब पार न पाया ।
तब बात को तलवार ले शठ मारने आया ।
मुनिराज ने निज ध्यान में मन लीन लगाया ।
उस वक्त हो प्रत्यक्ष तहां देव बचाया । हो दीन . ॥ 15 ॥
जब राम ने हनुमंत को गढ़ लंक पठाया ।
सीता की खबर लेने को सह - सैन्य सिधाया ।
मग बीच दो मुनिराज की लख आग में काया ।
झट वारि मूसलधार से उपसर्ग मिटाया । हो दीन . ॥ 16 ॥
जिननाथ ही को माथ नवाता था उदारा ।
घेरे में पड़ा था वह वज़ कर्ण विचारा ॥
उस वक्त तुम्हें प्रेम से संकट में चितारा ।
रघुवीर ने सब पीर तहां तुरत निवारा । हो दीन . ||17 ॥
रणपाल कुंवर के पड़ी थी पांच में सी ।
उस वक्त तुम्हें ध्यान में ध्याया था सबरी । ।
तत्काल ही सुकमाल की सब झद पड़ी बेगी ।
तुम राजकुंवर की सभी दुख दंदनिवरी । हो दीन .|| 18 ॥
जब सेठ के नन्दन को डसा नाग जु कारा ।
उस वक्त तुम्हें पीर में धर धीर पुकारा । ।
तत्काल ही उस बाल का विषभरि उतारा ।
वह जाग उठा सो के मानों सेज सकारा । । हो दीन , । । 19 ॥
मुनि मानतुंग को दई जब भूप ने पीरा ।
ताले में किया बंद भरी लोह जंजीरा । ।
मुनि ईश ने आदीश की थति की है गंभीरा ।
चक्रेश्वरी तब आन के झट दूर की पीरा । । हो दीन . 20 ॥
शिवकोटि ने हठ था किया समंतभद्र सों ।
शिवपिंड की बंदन करो शंको अभद्र सो । ।
उस वक्त स्वयंभू रचा गुरु भाव भद्र सों ।
जिनचन्द्र की प्रतिमा तहां प्रगटी सुभद्रसों । हो दीन . || 21 । ।
तोते ने तुम्हें आनके फल आम चढ़ाया ।
मैंढक ले चला फूल भरा भक्ति का भाया ।|
उन दोनों को अभिराम स्वर्गधाम बसाया ।
हम आपसे दातार को लख आज ही पाया । हो दीन . । । 22 । ।
कपि श्वानसिंह नेवला अज बैल विचार ।
तिर्य श्च जिन्हें रंच न था बोध चितारे । ।
इत्यादि को सुरधाम दे शिवधाम में धारे ।
हम आपसे दातार को प्रभु आज निहारे । । हो दीन . । । 23 । ।
तुमही अनन्त जन्तु का भय भीर निवारा ।
वेदो - पुराण में गुरु गणधर ने उचारा । ।
हम आपकी शरणागति में आके पुकारा ।
तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष इच्छिताकारा । । हो दीन . | 24 | |
प्रभु भक्त व्यक्त भक्त जक्त मुक्त के दानी ।
आनंदकंद वृन्द को हो मुक्ति के दानी । ।
मोहि दीन जान दीनबंधु पातक भानी ।
संसार विषम खार तार अन्तरजामी । । हो दीन . । । 25 । ।
करुणानिधान बान को अब क्यों न निहारो ।
दानी अनंत दानके दाता हो संभारो ॥
वृषचंद नंद वृन्द का उपसर्ग निवारो ।
संसार विषम खार से प्रभु पार उतारो ॥
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी ।
अब मेरी विथा क्यों ना हरो बार क्या लगी । । 26 । ।
( इति )
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दुःखहरण विनती
- श्री वृन्दावन जी
( )
श्रीपति जिनवर करुणायतनं , दुःखहरन तुम्हारा बाना है ।
मत मेरी बार अबार करो , मोहि देह विमल कल्याना है । टेक । ।
त्रैकालिक वस्तु प्रत्यक्ष लखो , तुम सो कुछ बात न छाना है ।
मेरे उर आरत जो वरतें , निहचै सब सो तुम जाना है । ।
अवलोक विथा मत मौन गहो , नहिं मेरा कहीं ठिकाना है ।
हो राजिवलोचन सोचविमोचन , मैं तुमसों हित ठाना है । । 1 । ।
सब ग्रंथनि में निरग्रंथनि ने , निरधार यही गणधार कही ।
जिननायक ही सब लायक हैं , सुखदायक छायक ज्ञानमही । ।
यह बात हमारे कान परी , तब आन तुम्हारी सरन गही ।
क्यों मेरी बार विलंब करो , जिन नाथ कहो यह बात सही । । 2 । ।
काहूको भोग मनोग करो , काहू को स्वर्ग - विमाना है ।
काहूको नाग नरेशपती , काहू को ऋद्धि निधाना है । ।
अब मोपर क्यों न कृपा करते , यह क्या अंधेर जमाना है ।
इन्साफ करो मत देर करो , सुखवृन्द भजो भगवाना है । । 3 । ।
खल कर्म मुझे हैरान किया , तब तुमसों आन पुकारा है ।
तुम ही समरथ न न्याय करो , तब बंदे का क्या चारा है । |
खल घालक पालक बालक का , नृपनीति यही जग सारा है ।
तुम नीतिनिपुण त्रैलोकपति , तुम ही लगि दौर हमारा है । । 4 । ।
जबसे तुमसे पहचान भई , तबसे तुमही को माना है ।
तुमरे ही शासन का स्वामी , हमको शरना सरधाना है । ।
जिनको तुमरी शरनागत है , तिनसौं यमराज डराना है । ।
यह सुजस तुम्हारे सांचे का , सब गावत वेद पुराना है । । 5 । ।
जिसने तुमसे दिल दर्द कहा , तिसका तुमने दुःख हाना है ।
अघ छोटा - मोटा नाशि तुरत , सुख दिया तिन्हें मनमाना है । ।
पावकसौ शीतल नीर किया , औ चीर बढ़ा असमाना है ।
भोजन था जिसके पास नहीं , सो किया कुबेर समाना है । । 6 । ।
चिजामणि पारस कल्पतरू , सुखदायकवसरवाना ।
तब दासबके सब दास बही . हमारे मन में हराना है ।
तुम भक्तन को सुरइंदपदी , फिर चक्रपतिपद चाना है ।
क्या बात कहाँ विस्तार बढ़ी , वे पाई मुक्ति ठिकाना है || 7 ||
गति चार चौरासी लाखवि , चिन्मरत मेरा भटका है ।
हो दीनबंध करुणानिधान , अबलों न मिटा वह खटका है । |
जब जोग मिला शिवसाधन का , सब विघ्न कर्म ने हटका है ।
तुम विघन हमारे दूर करो , सुख देहु निराकुल घटका है ॥ 8 ॥
गज - ग्राह - ग्रसित उद्धार लिया , ज्यों अंजन तस्कर तारा है ।
ज्यों सागर गोपदरूप किया , मैना का संकट टारा है । |
ज्यों शूलीतें सिंहासन और , बेडी को काट विडारा है ।
त्यों मेरा संकट दूर करो प्रभु , मोकूँ आस तुम्हारा है ॥ ७ ॥
ज्यों फाटक टेकत पांय खुला , औ सांप सुमन कर डारा है ।
ज्यों खड्ग कुसुम का माल किया , बालक का जहर उतारा है ।|
ज्यों सेठ विपत चकचूरि पूर , घर लक्ष्मी सुख विस्तारा है ।
त्यों मेरा संकट दूर करो प्रभु , मो . आश तुम्हारा है । । 10 ॥
यद्यपि तुमको रागादि नहीं , यह सत्य सर्वधा जाना है ।
चिनमूरति आप अनंतगुनी , नित शुद्धदशा शिवधाना है ।
तद्यपि भक्तन की पीर हरो , सुख देत तिन्हें जु सुहाना है ।
यह भक्ति अचिन्त्य तुम्हारी का , क्या पावै पार सयाना है || 11 ॥
दुःखखडन श्री सुखमंडन का , तुमरा प्रण परम प्रमाना है ।
वरदान दया जस कीरत का , तिलोक धुजा फहराना है ।
कमलाधर जी | कमलाकर जी ! , करिये कमला अमलाना है । |
अब मेरी विधा अवलोकि रमापति , रंच न बार लगाना है || 12 ||
हो दीनानाथ अनाथ हितू , जन दोन अनाथ पुकारी है ।
उदयागत कर्मविपाक हलाहल , मोह विधा विस्तारी है ।
ज्यों आप और भवि जीवन की , तत्काल विधा निरवारी है ।
त्यों वदावन ' यह अर्ज करें , प्रभु आज हमारी बारी हैं ||13 ||
( इति )
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गुरु स्तुति
- पं. भूधरदास कृत
( दोहा )
ते गुरु मेरे मन बसो , जे भवजलधि जहाज ।
आप तिरैं पर तारही , ऐसे श्री ऋषिराज ॥ 1 ॥ टेक ॥
मोह महारिपु जानि कै , छांड्यो सब घरबार ।
होय दिगम्बर वन बसे , आतम शुद्ध विचार ॥ 2 ॥
रोग उरग बिल वपु गिण्यो , भोग भुजङ्ग समान ।
कदली तरु संसार है , त्यागो सब यह जान ॥ 3 ॥
रत्नत्रय निधि उर धरै , अरु निरग्रन्थ त्रिकाल ।
मारयो काम खबीस को , स्वामी परम दयाला ॥ 4 ॥
पञ्च महाव्रत आचरें , पाँचों समिति समेत ।
तीन गुप्ति पालैं सदा , अजर - अमर पद हेत ॥ 5 ॥
धर्म धरै दश लक्ष्णी , भावै भावना सार ।
सहैं परीषह बीस द्वै , चारित रतन भण्डार ॥ 6 ॥
जेठ तपै रवि आकरो , सूखै सरवर नीर ।
शैल शिखर मुनि तप तपैं , दाझै नगन शरीर ॥ 7 ॥
पावस रैन डरावनी , बरसै जलधर धार ।
तरुतल निवसैं साहसी , चालै झञ्झाधार ॥ 8 ॥
शीत पड़े कपि - मद गले , दाहै सब बनराय ।
ताल तरङ्गनि के तटै , ठाड़े ध्यान लगाय ॥ 9 ॥
इह विधि दुद्धर तप तपैं , तीनों काल मंझार ।
लागे सहज सरूप में , तन सों ममत निवार ॥ 10 ॥
पूरव भोग न चिन्तवै , आगम वांछा नाहिं ।
चहुँगति के दुख सों डरै , सुरति लगी शिव माहि ॥ 11 ॥
रंग महल में पोढ़ते , कोमल सेज बिछाय ।
ते पश्चिम निशि भूमि में , सोवे संवरि काय ॥ 12 ॥
गज चढ़ि चलते गरव सों , सेना सजि चतुरंग ।
निरखि - निरखि पग तें धरै , पालैं करुणा अंग ॥ 13 ॥
वे गुरु चरण जहाँ धरैं , जग में तीरथ जेह ।
सो रज मम मस्तक चढ़ो ' भूधर ' मांगै एह ॥ 14 ॥
( इति )
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चैत्यवन्दना
सद्देवे देवलोके , रविशशिभुवने , व्यन्तराणां निकाये ,
नक्षत्राणां निवासे ,ग्रहगणपटले , तारकाणां विमाने ।
पाताले पन्नगेन्द्रे , स्फुटमणिकिरणे , ध्वस्तमिथ्यान्धकारे ,
श्रीमत्तीर्थङ्कराणां , प्रतिदिवसमहं , तत्र चैत्यानि वन्दे । । 1 । ।
वैताढये मेरुशृङ्गे , रुचकनगवरे , कुण्डले हस्तिदन्ते ,
वक्षारे कूटनाद्रौ , सुरकनकगिरौ , नैषधे नीलवन्ते ।
चित्रे शैले विचित्रे , यमकगिरिवरे , चक्रवाले हिमाद्रौ ,
श्रीमत्तीर्थङ्कराणां , प्रतिदिवसमहं , तत्र चैत्यानि वन्दे । । 2 । ।
श्रीशैले विन्ध्यशृङ्गे , विपुलगिरिवरे , अर्बुदे मानवाद्रौ ,
सम्मेदे तारके वा , कुलगिरिशिखरेऽष्टापदे स्वर्णशैले ।
रिक्ताद्रौ चोर्जयन्ते , विमलगिरिवरे , अञ्जने रोहणाद्रौ ,
श्रीमत्तीर्थङ्कराणां , प्रतिदिवसमहं , तत्र चैत्यानि वन्दे । । 3 । ।
सद्वीपे पञ्चमेरौ , क्षितिवरमुकुटे , चित्रकूटे त्रिकूटे ,
लाटे नाटे च घाटे , विटपघनतटे , देवकूटे विराटे ।
कर्णाटे हेमकूटे , विकटतरकुटे , चक्रकूटे भुटङ्के ,
श्रीमत्तीर्थङ्कराणां , प्रतिदिवसमहं , तत्र चैत्यानि वन्दे । । 4 । ।
अङ्गे बङ्गे कलिङ्गे , धवलजिनगृहे , सूरसेने तिलङ्गे ,
गौडे चौडे पुरन्ध्रे , वरतरद्रविडे कङ्कणे , चापपुण्ड्रे ।
व्याघ्रे कौड्रे कलिङ्गे , विजयजनपदे , कर्णकूटे सुराष्ट्रे ,
श्रीमत्तीर्थङ्कराणां , प्रतिदिवसमहं , तत्र चैत्यानि वन्दे ॥ 5 ॥
मेवाडे मालवे वा , प्रचुरपुरवरे , पुष्कले कच्छके वा ,
नेपाले लाहडे वा , कुवलयतिकले , सिंहले पुङ्गले वा ।
पाञ्चाले कौशले वा , विरहितसलिले , जाङ्गले वा तमाले ,
श्रीमत्तीर्थङ्कराणां , प्रतिदिवसमहं , तत्र चैत्यानि वन्दे ॥ 6 ॥
चम्पायां चन्द्रपुर्यां , गजपुरमथुरा - पत्तने उज्जयिन्यां ,
कौशाम्ब्यां कौशलायां , कनकपुरवरे , देवपुर्यां च काश्यां ।
लङ्कायां राजगेहे , दशपुरनगरे , भद्रिले वा विदेहे ,
श्रीमत्तीर्थङ्कराणां , प्रतिदिवसमहं , तत्र चैत्यानि वन्दे । । 7 । ।
भूगर्भ अन्तरिक्षे , गिरिशिखरतटे , स्वर्णदीनीर - तीरे ,
स्वर्लोके नागलोके , जलनिधिपुलिने , भूरुहाणां निकुञ्जे ।
ग्रामे वा दुर्गमे वा , जलथलविषये , मध्यलोके त्रिलोके ,
श्रीमत्तीर्थङ्कराणां , प्रतिदिवसमहं , तत्र चैत्यानि वन्दे । । 8 । ।
इत्थं श्रीजैनचैत्य - स्तवनमतिशयं , भक्तिभाजः त्रिसन्ध्यं ,
प्रोद्यत्कल्याणहेतुं , कलिमलहरणं , ये पठन्ति प्रसिद्धं ।
तेषां श्रीतीर्थयात्रा - फलमतुलमलं , जायते हयुत्तमानां ,
कार्ये सिद्धिं प्रभवति सततं चित्तमानन्दकारम् ॥ 9 ॥
( इति )
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पार्श्वनाथ स्तुति
वरसं वरसं वरसं वरसं , भवदं भवदं भवदं भवदं ।
सममा सममा सममा सममा , गमभङ्गमभङ्गमभङ्गमभम् ।
दरमन् दरमन् दरमन् दरमम् , गतरंङ् गतरंङ् गतरङ् गतरम् ।
गरसङ्ग रसङ्ग रसङ् गरसम् , नवरन् नवरन् नवरन् नवरम् ।
रमुदा रमुदा रमुदा रमुदा , समिनं समिन समिनं समिनं ।
विदितं विदितं विदितं विदितं , नमते नमते नमते नमते ।
यतना यतना यतना यतना , नयमा नयमा नयमा नयमा ।
क्षणल क्षणल क्षणल क्षणल , क्षरद क्षरद क्षरद क्षरद ।
प्रमदा प्रमदा प्रमदा प्रमदा , नकरा नकरा नकरा नकरा ।
नवमा नवमा नवमा नवमा , नसदा नसदा नसदा नसदा ।
तरसा तरसा तरसा तरसा , दयनो दयनो दयनो दयनो ।
कदमङ्कदमङ्कदमकदमम् , विभवा विभवा विभवा विभवा ।
इति पार्श्व जिनेश्वर ते स्तवनं , रचितं खचितं यमकैः सघनं ।
परिरंजित दक्षनर प्रकर , कुरुतां शिव सुंदर सौख्य भरं ।
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वीतरागस्तोत्रम्
शान्तं शिवं शिवपदस्य परं निदानं ,
सर्वज्ञ - मीश - ममलं जित - मोह - मानम् ।
संसार - नीरनिधि - मन्थन - मन्दरागं
पश्यन्ति पुण्य - रहिता न हि वीतरागम् ॥ 1 ॥
अव्यक्त - मुक्तिपद - पंकज - राजहंस ,
विश्वाऽवतं सममरै - विहित - प्रशंसम् ।
कन्दर्प - भूमिरूह - भजन - मत्त - नागं ,
पश्यन्ति पुण्य - रहिता न हि वीतरागम् ॥ 2 ॥
संसार - नीरनिधि - तारण यानपात्रं ,
ज्ञानैक - पात्र - मति - मात्र - मनोज्ञ - गात्रम् ।
दुर्वार - मार - घनपातन वीत - रागं ,
पश्यन्ति पुण्य रहिता न हि वीतरागम् ॥ 3 ॥
दान्तं - नितान्त - मति - कान्त - मनन्तरूपं ,
योगीश्वरं किमपि संविदित - स्वरूपम् ।
संसार - मारव - पथाद्भुत - निर्भरागं ,
पश्यन्ति पुण्य - रहिता न हि वीतरागम् ॥ 4 ॥
दुष्कर्म - भीत - जनता - शरणं सुरेन्द्रैः ,
निःशेष - दोष - रहितं महितं नरेन्द्रैः ।
तीर्थंकरं भविक - दापित - मुक्ति - मार्ग ( भाग )
पश्यन्ति पुण्य रहिता न हि वीतरागम् ॥ 5 ॥
कल्याण - वल्लि - वन - पल्लवनाऽम्बुवाहं ,
त्रैलोक्य - लोक - नयनैक - सुधा - प्रवाहम् ।
सिद्धयङ्गना - वर - विलास - निबद्ध रागं ,
पश्यन्ति पुण्य - रहिता न हि वीतरागम् ॥ 6 ॥
लोकाऽवलोकन - कलाऽतिशय - प्रकाशं ,
व्यालोककीर्ति वर , निर्जित शहाद्यस्यम् ।
वाणी - तरङ्ग - नवरगं - लसन्तरागं ,
पश्यन्ति पुण्य रहिता न हि वीतरागम् ॥ 7 ॥
कल्याणकीर्ति - रचिताऽऽलय - कल्पवृक्षं ,
ध्यानाऽनले दलित - पापमुदात्त - पक्षम् ।
नित्यं क्षमाभर - धुरन्धर - शेषनागं ,
पश्यन्ति पुण्य रहिता न हि वीतरागम् ॥ 8 ॥
श्री जैनसूरि - विनत - क्रम - पद्मसेनं ,
हेला - विनिर्दलित - मोह - नरेन्द्रसेनम् ॥
लीला - विलचित - भवाऽम्बुधि - मध्यभागं ,
पश्यन्ति पुण्य रहिता न हि वीतरागम् ॥ 9 ॥
( इति )
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सामायिक पाठ
- श्री गुध महाचन्द्र
प्रतिक्रमण कर्म काल अनंत भ्रम्यो जग में सहिये दुख भारी ।
जन्म - मरण नित किये पाप को है अधिकारी ।
कोटि भवांतर माहि मिलन दुर्लभ सामायिक ।
धन्य आज मैं भयो योग मिलियो सुखदायक ॥ १ ॥
हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जु मैं अब ।
ते सब मन - वच - काय - योग की गुप्ति बिना लभ ॥
आप समीप हजूर माहिं मैं खड़ो - खड़ो सब ।
दोष कहूँ सो सुनो करो नठ दुःख देहिं जब ॥ २ ॥
क्रोध - मान - मद - लोभ - मोह - माया वशि प्रानी ।
दुःख सहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ॥
बिना प्रयोजन एकेन्द्रिय वि - ति - चउ - पंचेंद्रिय ।
आप प्रसादहिं मिटै दोष जो लग्यो मोहि जिय ॥ ३ ॥
आपस में इकठौर थापकरि जे दुख दीने ।
पेलि दिये पगतलैं दाबिकरि प्रान हरीने ॥
आप जगत के जीव जिते तिन सब के नायक ।
अरज करूँ मैं सुनो दोष मेटो दुखदायका ॥ ४ ॥
अंजन आदिक चोर महा - घनघोर पापमय ।
तिनके जे अपराध भये ते क्षमा - क्षमा किय ॥
मेरे जे अब दोष भये ते क्षमहु दयानिधि ।
यह पड़िकोणो कियो आदि षट्कर्म माहिं विधि५ ॥
2 . द्वितीय प्रत्याख्यान कर्म
सामायिक कार्य का गादे करना चाहिए
जो प्रमाद वशि होय विराधे जीव घनेरे ।
तिन को जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे ॥
सो सब झूठो होउ जगत - पति के परसादै ।
जा प्रसादतै मिलै सर्व सुख दुःख न लाध ॥ ६ ॥
मैं पापी निर्लज्ज दया करि हीन महा शठ ।
किये पाप अघ ढेर पाप मति होय चित्त दुठ । ।
नि , हूँ मैं बार - बार निज - जिय को गरहूँ ।
सब विधि धर्म उपाय पाय फिर पापहि करहूँ ॥ ७ ॥
दुर्लभ है नर जन्म तथा श्रावक कुल भारी ।
सत संगति संजोग धर्म जिन श्रद्धा धारी ।
जिन वचनामृत धार समाव ” जिनवानी ।
तोहू जीव संघारे धिक धिक धिक हम जानी ॥ ८ ॥
इन्द्रिय लंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सब ।
अज्ञानी जिमि करै तिसि विधि हिंसक है अब ।
गमनागमन करता जीव विराधे भोले ।
ते सब दोष किये निहूँ अब मन वच तोले ॥ ९ ॥
आलोचन विधि थकी दोष लागे जु घनेरे ।
ते सब दोष विनाश होउ तुम तैं जिन मेरे ।
बार बार इस भाँति मोह - मद - दोष कुटिलता ।
ईर्षादिक तें भये निदि ये जे भयभीता ॥ १० ॥
3 . तृतीय सामायिक भाव कर्म
अब जीवन में मेरे समता भाव जग्यो है ।
सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो है ।
आर्त्त - रौद्र द्वय ध्यान छाँड़ि करिहूँ सामायिक ।
संजम मो कब शुद्ध होय यह भाव बधायक ॥ ११ ॥
पृथिवी जल अरु अग्नि वायु चउ काय वनस्पति ।
पंचहि थावर माहिं तथा त्रस जीव बसैं जित ।
बेइंद्रिय तिय चउ पंचेद्रिय माहिं जीव सब ।
तिन तें क्षमा कराऊँ मुझ पर क्षमा करो अब ॥ १२ ॥
इस अवसर में मेरे सब सम कंचन अरु तृण ।
महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहिं सम गण ।
जामन - मरण समान जानि हम समता कीनी ।
सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी ॥ १३ ॥
मेरो है इक आतम ता में ममत जु कीनो ।
और सबै सम भिन्न जानि ममता रस भीनो ।
मात - पिता - सुत - बंधु - मित्र - तिय आदि सबै यह ।
मो से न्यारे जानि जथारथ रूप कस्यो गह । ॥ १४ ॥
मैं अनादि जग जाल माहिं फैसि रूप न जाण्यो ।
एकेन्द्रिय दे आदि जंतु को प्राण हराण्यो ।
ते सब जीव समूह सुनो मेरी यह अरजी ।
भव - भव को अपराध छिमा कीज्यो कर मरजी ॥ १५ ॥
4 . चतुर्थ स्तवन कर्म
नमों ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्म को ।
सम्भव भव दुख हरण करण अभिनन्द शर्म को ॥
सुमति सुमति दातार तार भव सिंधु पार कर ।
पद्म प्रभ पद्माभ भानि भव भीति प्रीति धर ॥ १६ ॥
श्रीसुपार्श्व कृत पाश नाश भव जास शुद्ध करा
श्री चन्द्रप्रभ चन्द्रकान्ति सम देह कांति धर ॥
पुष्पदन्त दमि दोष कोष भविपोष रोष हर ।
शीतल शीतलकरण हरण भवताप दोष हर ॥ १७ ॥
श्रेयरूप जिनश्रेय ध्येय नित सेय भव्यजना
वासपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभय हन ।
विमल विमल मति देन अन्तगत है अनन्त जिन ।
धर्म शर्म शिवकरण शान्तिजिन शान्ति विधायिन ॥ १८ ॥
कुंथु कुंथुमुख जीवपाल अरनाथ जाल हर ।
मल्लिमल्ल सम मोहमल्ल मारन प्रचार धर ।
मुनिसुव्रत व्रतकरण नमत सुर संघहिं नमिजिन ।
नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ माहिं ज्ञानधन । ॥ १९ ॥
पार्श्व नाथ जिनपाव उपल सम मोक्ष रमापति ।
वर्द्धमान जिन नमूं व भवदुःख कर्म कृत ।
या विधि मैं जिन संघ रूप चउबीस संख्य धर ।
स्तवू नयूँ हूँ बारबार वन्दूँ शिव सुखकर ॥ २० ॥
5 . पंचम वंदना कर्म
वन्दूँ मैं जिनवीर धीर महावीर सु सनमति ।
वर्द्धमान अतिवीर वन्दि हूँ मनवचतन कृत ।
त्रिशला तनुज महेश धीश विद्यापति वन्दूँ ।
वंदौं नित प्रति कनक रूप तनु पाप निकंदु ॥ २१ ॥
सिद्धारथ नृप नंद द्वंद दुख दोष मिटावन ।
दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जग जीव उधारन । ।
कुण्डलपुर करि जन्म जगत जिय आनंद कारन ।
वर्ष बहत्तर आयु पाय सब ही दुख टारन ॥ २२ ॥
सप्तहस्त तनु तुंग भंगकत जन्म मरण भय ।
बालब्रह्म मय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञान मय ।
दे उपदेश उधारि तारि भव सिंधु जीव घना
आप बसे शिव माहिं ताहि वंदौं मन वच तन ॥ २३ ॥
जाकै वंदन थकी दोष दुख दूरहि जावै ।
जाके वंदन थकी मुक्ति हिय सन्मुख आवै ।
जाके वंदन थकी बंध होवें सुरगन के ।
ऐसे वीर जिनेश वन्दि हूँ क्रम युग तिनके ॥ २४ ॥
सामायिक षट्कर्म माहिं वंदन यह पंचम ।
वंदों वीर जिनेंद्र इंद्रशत वंद्य वंद्य मम । ।
जन्म - मरण भय हरो करो अब शान्ति शान्तिमय ।
मैं अघ कोष सुपोष दोष को दोष विनाशय ॥ २५ ॥
6 . छठा कायोत्सर्ग कर्म
कायोत्सर्ग विधान करूँ अंतिम सुखदाई ।
काय त्यजनमय होय काय सबको दुखदाई ।
पूरब - दक्षिण न , दिशा पश्चिम - उत्तर में ।
जिनगृह वंदन करूँ हरूँ भव पाप तिमिर मैं ॥ २६ ॥
शिरोनति मैं करूँ नमूं मस्तक कर धरि कैं ।
आवर्तादिक क्रिया करूँ मन वच मद हरि कैं ।
तीनलोक जिन भवनमाहिं जिन हैं जु अकृत्रिम ।
कृत्रिम हैं द्वय अर्द्धद्वीप माहीं वंदों जिम ॥ २७ ॥
आठ कोड़ि परि छप्पन लाख जु सहस सत्यागें ।
च्यारि शतक - पर असी एक जिनमंदिर जाणू ॥
व्यंतर ज्योतिष माहिं संख्य रहिते जिन मंदिर ।
ते सब वंदन करूँ हरहु मम पाप संघ कर ॥ २८ ॥
सामायिक सम नाहिं और कोउ बैर मिटायक ।
सामायिक सम नाहिं और कोउ मैत्री दायक ।
श्रावक अणुव्रत आदि अन्त सप्तम गुणथानका
यह आवश्यक किये होय निश्चय दुख हानक ॥ २९ ॥
जे भवि आतम - काज - करण उद्यम के धारी ।
ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी ॥
राग रोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब ।
' बुध महाचन्द्र ' विलाय जाय ता ” कीज्यो अब । ॥ ३० ॥
पार्श्वनाथाष्टक
श्यामो वर्ण विराजितेति विमले श्यामोऽपि सो स्मृतः ।
श्यामो मेघनिघर्घरोपि च घटाश्यामं च रात्र्यखिलं ॥
वर्षा मूसलधारणं च मखिलं कायोत्सर्गेणतां ।
धरणेन्द्रो पद्मावती युगसुरं श्री पार्श्वनाथं नमः ॥ 1 ॥
नमः श्री पार्श्वनाथाय त्रैलोक्याधिपतेर्गुरुः ।
पापं च हरते नित्यं पार्वतीर्थस्य दर्शनम् । । 2 । ।
ॐ ऐंक्लीं श्रीधरणेन्द्र पद्मावती सहिताय अतुल बल ।
पराक्रमाय ऐं ह्रीं क्लीं कम्ल्यूँ नमः ॥ 31 ॥
दर्शनं हरते पापं , दर्शनं हरते दुखं ।
दर्शनं हरते रोगान् , व्याधिहरति दर्शनम् । ।
ॐ आं क्रौ क्ष्ल्यूँ नमः ॥ 4 ॥
दर्शनाल्लभ्यते ज्ञानं , दर्शनाल्लभ्यते धनं ।
दर्शनाल्लभ्यते पुत्रं , सुखी भवति दर्शनात् ॥
ऐं ॐ अ : नम : बार नव जावयं दीयते । । 5 । ।
पुत्रार्थी लभते पुत्रं , धनार्थी लभते धनं ।
विद्यार्थी लभते विद्यां , सुखी भवति निश्चितं ॥ 6 ॥
राज्य - मान्यं भवेन्नित्यं , प्रजानां च विशेषतः ।
दुर्जनाश्च क्षयं यांति , श्रेयो भवति संकटे 17 ॥
इदं स्तोत्रं पठेन्नित्यं त्रि - संध्यं च विशेषतः ।
गृहे भवति कल्याणं पार्श्वतीर्थस्तवेन च ॥ 8 ॥
श्री पार्श्वनाथ - स्तोत्रम्
ॐ नमः पार्श्वनाथाय , विश्व चिंतामणि युते ।
ह्रीं धरणेन्द्र वैरोट्या , पद्मावती युता युते ॥ 1 ॥
शान्ति तुष्टि महा पुष्टि , धृति - कीर्ति विद्यापिते ।
ॐ ह्रीं दिङ् व्याल वेताल , सर्वाधि - व्याधि नाशिने । । 2 । ।
जया जिताख्या विजयाख्या , पराजित यान्वितः ।
दिशां पाले ग्रहैर्यक्षे , विद्या देवी भिरन्वितः ॥ 3 ॥
ॐ अ सि आ उ साय नमस् , तत्र त्रैलोक्य नाथताम् ।
चतुः षष्ठि सुरेन्द्रास्ते , भासन्ते छत्र चामरैः । । 4 । ।
श्री शंखेश्वर मण्डन् , पार्श्वजिन ! प्रणत कल्प तरुकल्प ।
चूरय दुष्ट व्रातं , पूरय में वांछित नाथ ॥
ॐ ह्रीं सर्व व्याधि विनाशन समर्थाय श्री पार्श्वनाथाय नमः ।
आलोचना पाठ ( छोटा )
( दोहा )
पंच परमपद को सदा करता रहूँ प्रणाम ।
चौबीसों जिनराज के गुण गाऊँ अभिराम । ।
प्रतिदिन कर मैं आलोचन , शिव पाऊँ संकट मोचन ।
बनते नित दोष घनेरे , जिन मध्य व सांझ सबेरे । ।
इससे हम शरण तुम्हारे , आये मेटो दुःख सारे ।
दीनों के नाथ तुम्हीं हो , अशरण के शरण तुम्ही हो ।
दुखियों को मैंने सताया , उनके दुःख में सुख पाया ।
उनको बहु दुःख दिलाया , फिर भी मैं नाहिं लजाया ॥
सच बोलना पाप समझकर , ठगता पर को हँस - हँसकर ।
चोरी का द्रव्य जु आया , उसको रख पाप कमाया ।
अरु शील रतन में खोकर , नचता बहु परिग्रह ढोकर ।
कर क्रोध किया मन माना , माया में हित पहिचाना ॥
लालच को गले लगाया , मृदुता को दूर भगाया ।
मैं देव कुदेव न समझा , सबके जालों में उलझा ।
नदियों में पुण्य समझकर , नित स्नान किया मल मल कर ।
गुरु मान नहीं गुण गाया , जिन शास्त्र नहीं सुन पाया ।
मन इन्द्रियों के वश होकर करता अपना हित खोकर ।
मन माना निशदिन खाया , हिंसा का पाप कमाया ॥
पीकर छाने बिन पानी , कर बैठा में अनजानी ।
ईयां कर चित्त जलाया , विद्या मद में भरमाया ।
प्रभुता थन मद का प्याला , पीकर हूँ मै मतवाला ।
जिन दर्शन करना भूला , शूला में पाय का झूला । ।
करुणा का भाव न जागा , समता में वित्त व पाया ।
मैत्री कर पुण्य न पाया , कर दान नहीं हर्षाया ।
पर का उपकार न बनता , सुख में इस हेतु कठिनता ।
प्रभु मेरी ऐसी मति हो , शुभ कर्म कर शुभ गति हो ।
जिनधर्म का तेज बढ़ाऊँ , सुखिया जग को मैं पाऊँ ।
सबके सुख में सुख माने , निज जन्म सफल तय मानू ॥
( दोहा )
तुम ही शंकर विष्णु हो , ब्रह्मा बुद्ध जिनेश ।
विघ्न जाल काटो पतित , मैं हूँ तुम पतितेश । ।
सरस्वती स्तवन
जगन्माता ख्याता , जिनवर मुखांभोज उदिता ।
भवानी कल्याणी , मुनि मनुज मानी प्रमुदिता । ।
महादेवी दुर्गा , दरनि दुःखदाई दुर गती ।
अनेका एकाकी , द्वयुत दशांगी जिनमती ॥ १ ॥
कहें माता तोकों , यद्यपि सबही अनादिनिधना ।
कथंचित् तो भी तू , उपजि विनशै यों विवरना । ।
धरै नाना जन्मा , प्रथम जिनके बाद अबलों ।
भयो त्यों विच्छेद , प्रचुर तुव लाखों बरसलों ॥
महावीर स्वामी , जब सकल ज्ञानी मुनि भये ।
बिडौजा के लाये , समवसृत में गौतम गये ॥
तबै नौकारूपा , भव जलधि माहिं अवतरी ।
अरूपा निर्वर्णा , विगत भ्रम साँची सुखकरी ॥
धरै हैं जे प्राणी , नित जननि तो को हृदय में ।
करे हैं पूजा व , मन - वचन - काया करि नमें ।
पढ़ा - देवें जो , लिखि लिखि तथा ग्रन्थ लिखवा ।
लहे ते निश्चय सों , अमर पदवी मोक्ष अथवा । ।
प्रभाती
- दौलत कृत
प्रातःकाल मन्त्र जपो णमोकार भाई ।
अक्षर पैंतीस शुद्ध हृदय में धराईटेक ॥
नर भव तेरो सुफल होत पातक कट जाई ।
विघन जासों दूर होत संकट में सहाई ॥ १ ॥
कल्पवृक्ष कामधेनु चिन्तामणि जाई ।
ऋद्धि सिद्धि पारस तेरो प्रकटाई ॥ २ ॥
मन्त्र जन्न तन्त्र सब जाही से बनाई ।
सम्पति भण्डार भरे अक्षय निधि आई ॥ ३ ॥
तीन लोक माहिं सार वेदन में गाई ।
जगत में प्रसिद्ध धन्य मंगलीक भाई ॥ ४ ॥
श्री अकलङ्क स्तोत्रम्
- श्री अकलङ्क देव विरचित
( शार्दूलविक्रीडित छन्दः )
त्रैलोक्यं सकलं त्रिकाल - विषयं सालोक - मालोकितं ,
साक्षाद् येन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं सांगुलि । ।
रागद्वेष - मया मयान्तक - जरा - लोलत्व - लोभादयो ,
नालं यत्पद - लंघनाय स महादेवो मया वंद्यते । । । ।
दग्धं येन पुरत्रयं शरभुवा तीव्रार्चिषा वहिनना ,
यो वा नृत्यति मत्त - वरिपतवने यस्यात्मजो वा गुहः ।
सोऽयं किं मम शंकरो भय - तृषा - रोषार्ति - मोह - क्षयं ,
कृत्त्वा यः स तु सर्व - वित्तनुभृतां क्षेमकरः शंकरः । । 2 । ।
यत्नाद्येन विदारितं कररुहै - दैत्येन्द्र - वक्षः स्थलं ,
सारथ्येन धनञ्जयस्य समरे योऽमारयत् कौरवान् ।
नासौ विष्णु - रनेक - कालविषयं यज्ज्ञान - मव्याहतं ,
विश्वं व्याप्य विजृम्भते स तु महाविष्णुः सदेष्टो मम । । । ।
उर्वश्या - मुदपादि राग - बहुलं चेतो यदीयं पुनः ,
पात्री - दण्ड - कमण्डलु - प्रभृतयो यस्या कृतार्थ - स्थितिम् ।
आविर्भाव - यितुं भवन्ति स कथं ब्रा भवेन्मादृशां ,
क्षुत्तृष्णा - श्रम - राग - रोग - रहितो ब्रह्मा कृतार्थोऽस्तु नः । । 4 । ।
यो जग्ध्वा पिशितं समत्स्य - कवलं जीवं च शून्यं वदन ,
कर्ता कर्मफलं न भुङ्क्त इति यो वक्ता स बुद्धः कथम् ।
यज्ज्ञानं क्षणवर्ति वस्तु सकलं ज्ञातुं न शक्तं सदा ,
यो जानन्युगपज्जगत्त्रय - मिदं साक्षात् स बुद्धो मम । । 5 । ।
( स्रग्धरा छन्दः )
ईशः किं छिन्न - लिंगो यदि विगत - भयः शूलपाणिः कथं स्यात् ,
नाथः किं भैक्ष्यचारी यतिरिति स कथं सांगनः सात्मजश्च ।
आर्द्राजः किन्त्वजन्मा सकल - विदिति किं वेत्ति नात्मान्तरायं ,
संक्षेपात्सम्यगुक्तं पशुपतिम - पशुः कोऽत्र धीमानु - पास्ते । । 611
ब्रह्मा चर्माक्ष - सूत्री सुर - युवति - रसावेश - विभ्रान्त - चेताः ,
शम्भुः खट्वांग - धारी गिरिपति - तनया - पांग - लीलानुविद्धः ।
विष्णुश्चक्राधिपः सन्दुहित - रम - गमद् गोप -
नाथस्य मोहा दर्हन्विध्वस्त - रागो जित - सकलभयः कोऽय - मेष्वाप्तनाथः । । 7 । ।
( शार्दूलविक्रीडित छन्दः )
एको नृत्यति विप्रसार्य ककुभां चक्रे सहस्त्रं भुजा ,
नेकः शेष - भुजंग - भोगशयने व्यादाय निद्रायते ।
दृष्टुं चारु - तिलोत्तमा - मुखमगा - देकश्चतु - र्वक्त्रता ,
मेते मुक्तिपथं वदन्ति विदुषा - मित्येतदत्यद् - भुतम् । । ४ । ।
( स्रग्धरा छन्दः )
यो विश्वं वेद वेद्यं जनन - जलनिधे - भगिनः पारदृश्वा ,
पौर्वा - पर्याविरुद्धं वचन - मनुपमं निष्कलंकं यदीयम् ।
तं वन्दे साधुवंद्य सकल - गुण - निधिं ध्वस्त - दोष - द्विषन्तं ,
बुद्धं वा वर्द्धमान - शतदल - निलयं केशवं वा शिवं वा । । 9 । ।
( शार्दूलविक्रीडित छन्दः )
माया नास्ति जटा - कपाल - मुकुट चन्द्रो न मूर्धावली ,
खट्वांगं न च वासुकिन च धनुः शूलं न चोग्रं मुखम् ।
कामो यस्य न कामिनी न च वृषो - गीतं न नृत्यं पुनः ,
सोऽस्मान् पातु निरंजनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः । 100
नो ब्रह्मांकित - भूतलं न च हरेः शम्भोर्न मुद्रांकितं ,
नो चन्द्रार्क - करांकितं सुरपते - र्वजांकितं नैव च ।
षडवक्त्रां - कित - बौद्ध - देव - हुतभुग्यक्षोरगैनांकितं ,
नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्र - मुद्रांकितम् । । 11 । ।
मौजी दण्ड - कमण्डलु - प्रभृतयो नो लाञ्छनं ब्रह्मणो ,
रुद्रस्यापि जटा - कपाल मुकुट - कौपीन - खट्वांगनाः ।
विष्णोश्चक्र - गदादि - शंख - मतुलं बुद्धस्य रक्ताम्बरं ,
नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्र - मुद्रांकितम् । । 12 । ।
नाहंकार - वशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं ,
नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धया मया ।
राज्ञः श्रीहिम - शीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो ,
बौद्धौघान्सकलान् विजित्य स घटः पादेन विस्फालितः । । 3 । ।
( स्रग्धरा छन्दः )
खट्वांगं नैव हस्ते न च हृदि रचिता लम्बते मुण्डमाला ,
भस्मांगं नैव शूलं न च गिरि - दुहिता नैव हस्ते कपालं ।
चन्द्रार्द्ध नैव मूर्धन्यपि वृषगमनं नैव कण्ठे फणीन्द्रः ,
तं वन्दे त्यक्त दोषं भव - भय - मथनं चेश्वरं देवदेवं । । 14 । ।
किं वाद्यो भगवानमेय - महिमा देवोऽकलङ्कः कलौ ,
काले यो जनतासु धर्म - निहितो देवोऽकलङ्को जिनः ।
यस्य स्फार - विवेक - मुद्र - लहरीजाले प्रमेयाकुला ,
निर्मग्ना तनु - तेतरा भगवती ताराशिरः कम्पनम् । । 15 । ।
सा तारा खलु - देवता - भगवती मन्याऽपि मन्यामहे ,
षण् - मासावधि - जाड्य - सांख्य - भगवद् भट्टा - कलंक प्रभोः ।
वाक् - कल्लोल - परंपरा - भिरमते नूनं मनो - मज्जन ,
व्यापार सहतेस्म विस्मित - मतिः संताडि - ते तस्ततः । । 16 । ।
( इत्यकलंकस्तोत्रम् )
श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र
( भुजङ्गप्रयात - छंद )
न अस्त्रं न शस्त्रं न पुष्पं न हस्ते , न माला न मौली न कर्णेच कुण्डले ।
भुजे वा करेवा कटिबंध रिक्तं , नमो देव देवं सदा पार्श्वनाथं । ।
ललाटे न सिंदूर अज्जनं न नेत्रे , न सूत्रं च गाने जटा वा वभूतं ।
न ते वाहने यो सवारे तिर्यंचे , नमो देवदेवं सदा पार्श्वनाथ । । 2 । ।
न शुक्लं न रक्तं न पीतं च पत्रं न छालं न वक्कल न चर्म च वस्त्र ।
दिगं एव वस्त्रं दिशावास रूपं , नमो देवदेवं सदा पार्श्वनाथ । । 3 । ।
न भार्या सुतं वा दासी न दासं , न आश्रम गृहं कुटीरं गुहा वा ।
न खाद्यं न पेयं न अन्नं च भाण्डं , नमो देवदेवं सदा पार्श्वनाथ । । 4 । ।
न रागं न द्वेषं न मोहं न कामं , न हास्यं न शोकं न रोषा च मुद्रा ।
जिनं वीतरागं विकारं विवर्जित , नमो देवदेवं सदा पार्श्वनाथ । । 5 । ।
अकोपं अमानं अमाया अलोभ , अजन्म अमृत्यु अजरा अरोग ।
अहारं न स्वाद नशा वा बुभुच्छा , नमो देवदेवं सदा पार्श्वनाथ 6 ॥
सुदर्शन च ज्ञानं चरित्रं सुशीलं , स्वशुद्धात्मा लीनश्च दोषा : विलीनाः ।
न पूजासुमोदन निंदासु रोषं , नमो देवदेवं सदा पार्श्वनाथ । । 7 । ।
श्री सरस्वती स्तोत्रम्
चन्द्रार्क - कोटि - घटितोज्ज्वल दिव्यमूर्ते ,
श्री चन्द्रिका कलित निर्मल शुभ्र वस्त्रे ।
कामार्थदायि कलहंस समाधि रूढ़े ,
वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥ १ ॥
देवासुरेन्द्र - नत - मौलिमणि प्ररोचि ,
श्री मंजरी निविड रंजित पाद पद्म ।
नीलालके प्रमदहस्ति समानयाने
वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥ २ ॥
केयूरहार मणि - कुण्डल मुद्रिकाद्यैः ,
सर्वांगभूषण नरेन्द्र मुनीन्द्र वंद्ये ।
नानासुरल वर निर्मल मौलियुक्ते ,
वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥ ३ ॥
मंजीर कोत्कनक - कंकण - किंकणीनाम् ,
कांच्याश्च झंकृत - रवेण विराजमाने ।
सद्धर्म वारिनिधि सन्तति वर्द्धमाने ,
वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥ ४ ॥
कंकलिपल्लव विनिंदित पाणि युग्मे ,
पद्मासने दिवस पद्मसमान वक्त्रे ।
जैनेन्द्र वका भव दिव्य समस्त भाषे ,
वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥ ५ ॥
अर्द्वन्दु मण्डितजटा ललित स्वरूपे ,
शास्त्र प्रकाशिनि समस्त कलाधिनाथे ।
चिन्मद्रिका जपसरामय पुस्तकांके ,
वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥ ६ ॥
डिंडीरपिंड हिमशंख सिताभ्रहारे ,
पूर्णेन्दु बिम्बरुचि शोभित दिव्यगात्रे ।
चांचल्यमांन मृगशावललाट नेने ,
वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥ ७ ॥
पूज्ये पवित्र करणोन्नत कामरूपे ,
नित्यं फणीन्द्र गरुडाधिप किन्नरेन्द्रैः ।
विद्या धरेन्द्र सुरयक्ष समस्त वृन्दैः ,
वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥ ८ ॥
( इति सरस्वती स्तोत्रम् )
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं वद् - वद् वाग्वादिनी भगवती सरस्वती ह्रीं नमः ।
श्री सरस्वती नाम स्तोत्रम्
सरस्वत्याः प्रसादेन , काव्यं कुर्वन्ति मानवाः ।
तस्मान्निश्चल भावेन , पूजनीया सरस्वती ॥ १ ॥
श्री सर्वज्ञ मुखोत्पन्ना , भारती बहुभाषिणी ।
अज्ञान तिमिरं हन्ति , विद्या बहु विकासिनी ॥ २ ॥
सरस्वती मया दृष्टा , दिव्या कमल लोचना ।
हंसस्कन्ध समारूढ़ा , वीणा पुस्तक धारिणी ॥ ३ ॥
प्रथम भारती नाम , द्वितीयं च सरस्वती ।
तृतीयं शारदा देवि , चतुर्थं हंसगामिनी ॥ ४ ॥
पंचमं विदुषां माता , षष्ठं वागीश्वरि तथा ।
कुमारी सप्तमं प्रोक्तं , अष्टमं ब्रह्मचारिणी ॥ ५ ॥
नवमं च जगन्माता , दशमं ब्राह्मिणी तथा ।
एकादशं तु ब्रह्माणी , द्वादशं वरदा भवेत् ॥ ६ ॥
वाणी त्रयोदशं नाम , भाषाचैव चतुर्दशं ।
पंचदशं च श्रुतदेवी , षोडशं गौनिगद्यते ॥ ७ ॥
एतानि श्रुत नामानि , प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
तस्य संतुष्यति माता , शारदा वरदा भवेत् ॥ ८ ॥
सरस्वती नमस्तुभ्यं , वरदे काम रूपिणी ।
विद्यारंभं करिष्यामि , सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥ ९ ॥
( इति श्री सरस्वती नाम स्तोत्रम् )
मृत्यु महोत्सव
मृत्यु - मार्गे प्रवृत्तस्य वीतरागो ददातु मे ।
समाधि - बोधि - पाथेयं यावन्मक्ति - पुरी पुरः ॥ 1 ॥
कृमि - जाल - शताकीर्णे , जर्जर देह - पञ्जरे ।
भुज्यमाने न भेतव्यं , यतस्त्वं ज्ञान - विग्रहः ॥ 2 ॥
ज्ञानिन् भयं भवेत्कस्मात्प्राप्ते मृत्यु - महोत्सवे ।
स्वरूपस्थः पुरं याति , देही देहान्तर - स्थितिम् ॥ 3 ॥
सुदत्तं प्राप्यते यस्माद् , दृश्यते पूर्व - सत्तमैः ।
भुज्यते - स्वर्भवं सौख्यं मृत्यु - भीतिः कुतः सताम् ॥ 4 ॥
आग दुःख - सन्तप्तः प्रक्षिप्तो देह - पिञ्जरे ।
नात्मा विमुच्यतेऽन्येन मृत्यु - भूमिपतिं विना ॥ 5 ॥
सर्व - दुःखं प्रदं पिण्डं दूरीकृत्यात्मदर्शिभिः ।
मृत्यु - मित्र - प्रसादेन प्राप्यन्ते सुख - सम्पदः ॥ 6 ॥
मृत्यु - कल्प - द्रुमे प्राप्ते येनात्मार्थो न साधितः ।
निमग्नो जन्म - जम्बालेस पश्चात् किं करिष्यति ॥ 7 ॥
जीर्णं देहादिकं सर्वं नूतनं जायते यतः ।
स मृत्युः किं न मोदाय सतां सातोत्थितिर्यथा ॥ 8 ॥
सुखं दुःखं सदा वेत्ति देहस्थश्च स्वयं व्रजेत् ।
मृत्यु - भीतिस्तदा कस्य जायते परमार्थतः ॥ १ ॥
संसारासक्त - चित्तानां मृत्युीत्यै भवेन्नृणाम् ।
मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञान - वैराग्यवासिनाम् ॥ 10 ॥
पुराधीशो यदा याति सुकृत्यस्य बुभुत्सया ।
तदासौ वार्यते केन प्रपञ्चैः पाञ्च - भौतिकैः ॥ 11 ॥
मृत्यु - काले सतां दुःखं यद् भवेद् व्याधि - संभवम् ।
देह - मोह - विनाशाय मन्ये शिव - सुखाय च ॥ 12 ॥
ज्ञानिनोऽमृत - सङ्गाय मृत्युस्तापकरोऽपि सन् ।
आमकुम्भस्य लोकेऽस्मिन् भवेत्पाकविधिर्यथा ॥ 13 ॥
यत्फलं प्राप्यते सद्भिज्ञतायास - विडम्बनात् ।
तत्फलं सुखसाध्यं स्यान्मृत्यु - काले समाधिना ॥ 14 ॥
अनार्तः शान्तिमान् मो न तिर्यग्नापि नारकः ।
धर्म्य - ध्यानी पुरो मर्योऽनशनी त्वमरेश्वरः ॥ 15 ॥
तप्तस्य तप सश्चापि पालितस्य व्रतस्य च ।
पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्युः समाधिना ॥ 16 ॥
आतिपरिचितेष्ववज्ञा नवे भवेत्प्रीतिरिति हि जन - वादः ।
चिरतर - शरीर - नाशे नवतर - लाभे च किं भीरुः ॥ 17 ॥
स्वर्गादेत्य पवित्र - निर्मल - कुले संस्मर्यमाणा जनै
दत्वा भक्ति - विधायिनां बहुविधं वाञ्छानुरूपं धनम् ।
भुक्त्वा भोगमहर्निशं पर - कृतं स्थित्वा क्षणं मण्डले ,
पात्रावेश - विसर्जनामिव मृति सन्तो लभन्ते स्वतः ॥ 18 ॥
मंगल गान
हे ! शान्त सन्त अरहन्त अनन्त ज्ञाता ,
हे ! शुद्ध बुद्ध जिन सिद्ध अबद्ध धाता ।
आचार्यवर्य उवझाय सुसाधु सिन्धु ,
मैं बार - बार तुम पाद - पयोज बन्दूँ ॥ 1 ॥
है मूलमंत्र नवकार सुखी बनाता ,
जो भी पढ़े विनय से अघ को मिटाता ।
है आद्य मंगल यही सब मंगलों में ,
ध्याओ इसे न भटको जग जंगलों में । । 2 ॥
सर्वज्ञ देव अरहन्त परोपकारी ,
श्री सिद्ध वंद्य परमातम निर्विकारी ।
श्री केवली कथित आगम साधु प्यारे ,
ये चार मंगल , अमंगल को निवारे ॥ 3 ॥
श्री वीतराग अरहन्त कुकर्मनाशी ,
श्री सिद्ध शाश्वत सुखी शिवधाम वासी ।
श्री केवली कथित आगम साधु प्यारे ,
ये चार उत्तम , अनुत्तम शेष सारे ॥ 4 ॥
जो श्रेष्ठ हैं शरण , मंगल कर्मजेता ,
आराध्य हैं परम हैं शिवपंथ नेता ।
हैं वंद्य खेचर , नरों , असुरों , सुरों के ,
वेध्येय पंचगुरु हों , हम बालकों के । । 5 । ।
सरस्वती स्तोत्र
बारहअगं गिज्जा दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा। चोद्दसपुवाहरमा ठावे दव्वाय सुयदेवी ।1।
आचारशिरसं सूत्र - कृतवस्त्रां सुकंठिकाम् । स्थानेन समवायांग - व्याव्याप्रज्ञप्ति - दौर्लताम् ।।2।।
वाग्देवतां जातृकथो - पासकाध्ययनस्तनीम् ।. अन्तकृद्दश- सन्नाभि - मनुत्तरदशाङ्गतः ।।3।।
सुनितम्बां सुजधनां प्रश्नव्याकरण श्रुतात् । विपाकसूत्रदृग्वाद - चरणां चरणाम्बराम् । । 4 ।।
सम्यक्त्वतिलकां पूर्व - चतुर्दश विभूषणाम् तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण - चारूपन्नाङ्करश्रियम्।।5।
आप्तदृष्ट प्रवाहौध-द्रव्यभावाधिदेवतम् । परब्रह्मपथादृप्तां स्यादुक्तिं भुक्तिमुक्तिदाम्।।6।
(बसन्ततिलकाछन्दा )
निर्मलमोहतिमिरक्षपणैकदक्ष,न्यक्षेण सर्वजगदुज्ज्वलनैकतानम् ।
सौषेस्व चिन्मयममहो जिनवाणि नूनं,प्राचीमतो जयसि देवि ! तदल्पसूतिम्।।7।।
( स्वागता छन्द )
आभवादपि दुरासदमेव , श्रायसं सुखमनन्त - मचिन्त्यम्।
जायतेऽद्य सुलभं खलु पुंसां,त्वप्रसादत इहांब।नमस्ते ।।8।
चेतश्चमत्कारकरा जनानां , महोदयाश्चाभ्युदयाःसमस्ताः।
हस्ते कृताः शस्त्रजनैः प्रसादात् तवैव लोकाम्ब! नमोस्तु तुभ्यम् ।।9।।
( मालिनी छन्द )
सकलयुवतिसृष्टेरम्ब!चूणामणिस्त्व, त्वमसिगुणसुपुष्टेधर्मसृष्टेश्च मूलम् ।
त्वमसि च जिनवाणि । स्वेष्टमुक्त्यङ्गमुख्या , तदिह तव पदाब्जं भूरिभक्त्यानमामः।।10।।
( प्रतिष्ठापाठ ग्रन्थ से साभार )
अष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
अर्हन् । जिन । त्रिजगदीश्वर । वीतराग ।
सर्वज्ञ । तीर्थंकर । शड्क़हर । केवलाक्ष ।
प्रत्यक्ष विश्व । समताभरण । स्वयम्भो ।
स्वामिन् अजन्ममरण त्रिजगच्छरण्य ॥ १ ॥
त्रैलोक्यभास्कर । महेश्वर । सिद्ध ! बुद्ध
ब्रह्मननन्त । पुरुषोत्तम । विश्वरूप ।
विश्वप्रकाशक । वशीकृत विश्वविश्व ।
ज्योत्स्नाकर ! प्रकटविश्व । महानिधान ! ॥ २ ॥
विश्वोपलम्भमय । विश्वविभूतिकोश !
विश्वेश । विश्वभरणक्षम | विश्वसेव्य ।
विश्वातिशायिमहिमन् ! भगवन्नुपेक्ष ।
श्रृङ्गारबोधधन । विश्वभरोपयुक्त ! ॥ ३ ॥
दूराधिरूड । पयपूरितसर्वकाम !
निष्काम । निर्मल ! निरामय ! निर्विकार ।
निर्मोह ! निःप्रलय ! निर्भर । निष्कषाय ।
निःसीमदृकप्रसर ! निष्कल ! निष्कलङ्क ! ॥ ४ ॥
स्याद्वाद ! सृष्टिकर । मुक्तिमहारसज्ञ ।
सांसारपारग ! समग्रगुणैककोश ।
दुल् र्लङध्यशासन ! निरावरण ! त्रिरत्न !
निर्वाणकारण ! चराचरभावरूढ ! ॥ ५ ॥
निर्द्वन्द्व ! निःप्रतिघ ! निःक्रिय ! निःप्रपञ्च !
निष्कर्मपास ! निरुपप्लव ! चिद्विलास !
निर्जीर्णकर्ममल ! केवलकालकाल !
कल्याणकारक ! सुदुष्कर ! कर्मकारिन् ! ॥ ६ ॥
आश्चर्यकोश ! कृतकृत्य ! चिदेककेतो !
केवल्यलाञ्छन् ! सनातन ! शान्ततत्त्व !
शान्तावतार ! भवभञ्जन ! शुद्धधामन् !
धाम्नांनिधे ! विहतबन्धन ! सुप्रबुद्ध ! ॥ ७ ॥
सिद्धात्मतत्त्व ! गुरुचिद्भर । चिद्गतीर !
चिद्वीर्य ! दुर्जय ! जयास्पद ! जैत्रतेजः !
भूतार्थसुस्थित ! सुदर्शन ! बुद्धबोध !
संविन्निधान ! समसागर ! शान्तमूर्ते ! ॥ ८ ॥
दिव्यैकदृग्मय ! चिदन्वय ! नित्यपूर्ण !
नित्योदिताविचलितानुभवस्वभाव !
आद्यन्तमुक्त ! सुविविक्त ! महः समस्त !
सत्तावलेह ! पिहितास्त्रव ! मां पुनीहि ! ॥ ६ ॥
इति परमात्मनोऽष्टोत्तरशत नाम स्तोत्रं समाप्तम् ॥
बृहत्सुप्रभातस्तोत्रम्
विद्याधरामरनरोरगयातुधान !
सिद्धासुराधिपतिसंस्तुतपादपद्म !
हेमद्दुते ! वृषभनाथ ! युगादिदेव !
श्रीमज्जिनेंद्र विमलं मम सुप्रभातम् !
प्रोत्फुल्लचारु कुसुमोच्चय हेमवर्ण !
पापापनोदिकिरणैकरसाभिरूढ !
रागादिदोषरहिताऽजित चारूमूर्ते !
श्रीमज्जिनेंद्र विमलं मम सुप्रभातम् !
पप्रोद्दामदर्पमकरध्वज कृष्णवर्ण !
तापोपशान्ति निपुणोन्नतवारिवाह !
चामीकराभहत कल्मष सम्भवेश !
श्रीमज्जिनेंद्र विमलं मम सुप्रभातम् ! ||3||
सद्धर्ममार्ग गहनानुगतार्थसार !
वाणीविशेषरचनाप्रहतान्धकार !
देवाभिन्नदनसुवर्णविभाभिराम !
श्रीमज्जिनेंद्र विमलं मम सुप्रभातम् ! ||4||
मज्जद् भवाम्बुनिधिमध्य समस्त जन्तु,
हस्तावलम्ब ! सुमते ! निहतारिवर्ग !
विद्दुच्छटाभ ! विषयेन्धनवह्रिरूप !
श्रीमज्जिनेंद्र विमलं मम सुप्रभातम् ! ||5||
पद्मप्रभाभिहतपद्मदलायताक्ष !
पद्यानन!प्रकटपादसुपद्मलक्ष्म!
पद्मप्रभापटलपाटलदेहदीप्ते !
श्रीमज्जिनेन्द्र! विमलं मम सुप्रभातम् ॥ 6||
दुष्टारिकर्मकठिनोन्नतग्रन्थिबद्ध!
सम्भेदनैकनिरतामरराजनृत !
कीराङ गरागरुचिराङग! विभो! सुपार्श्व
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सुप्रभातम् ॥ 7॥
चापल्यहीनकृतचित्तवितानयोगि !
चिन्ताधिगम्य विमलाखिलचारुमूर्ते !
चन्द्रप्रभाभिविमलेन्दुकलावदात !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सुप्रभातम् ॥ 8॥
रागान्धदेवकृतशासननाशनैक !
ध्यानाग्निदग्धदुरितोरुतमोवितान !
प्रालेयशैलशिखरप्रभपुष्पदन्त !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सु प्रभातम् ॥ 9॥
निर्वाणसौख्यकरदुर्ल भवस्तुभूत !
रत्नत्रयाभिरतमानवकामधेनो !
हेमप्रभाभिघनशीतलशीतलांशो !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सु प्रभातम् !||10||
हेमाचलाभ ! भयवर्जित ! सौम्पमूर्ते !
श्रेयश्च शर्ममयशान्तविकारभाव !
लोकाग्रसारपदवीस्थिर संस्थितात्मन् !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सु प्रभातम् ॥ 11 ॥
सन्ध्योपरागरुचिराङ्ग ! सहस्रमानो !
तेजोऽधिकाखिल जगत् प्रतिवन्धमान !
दुर्वारवैरिबलमर्दन ! वासु पूज्य !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सुप्रभातम् ॥ 12 ॥
गन्धर्वयक्षखचरोरगदैत्यनाथ !
सम्पूजिताङि्घ्रयुगलोत्तमहाटकाम !
ध्वस्तारिवर्ग ! विमलामलचारुरूप ।
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सु प्रभातम् ॥ 13॥
स्वर्गापवर्गसु खसङ्गमसंविधान !
शुद्ध ! प्रबुद्ध ! सदनन्त ! मुनीन्द्रचन्द्र !
राजीवकेशरपरागरुचेऽवदात !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सु प्रभातम् ॥ 14॥
धर्मप्रसिद्धसकलागमवस्तुभूत!
यत्नोपलभ्य ! नवभानुसमानदीप्ते !
मात्सर्यहीन ! नरकान्तक ! कामशत्रो !
श्रीमज्जिनेन्द्र विमलं मम सुप्रभातम् ॥ १५ ॥
शान्त ! प्रशान्त ! सकलाहितशान्तिनाथ !
देवाधिराजनुतपाद युगारबिन्द ।
तप्तानलाम । भवनिर्मथनैकभाव !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सुप्रभातम् ॥ 16 ॥
कुन्थो ! कुतीर्थकरदेवमतङ्गजौध !
विद्रावणाभिरतिकेसरिशक्तिसार !
सन्तप्तचारु तपनीय समानदीप्ते !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सुप्रभातम् ॥ 17 ॥
देवाधिनाय ! मनुजेश्वर ! नागराज !
सन्दोहशुभ्रतरसंविहितातपत्र !
हेमप्रभाभ ! रतिनायकदर्पहारिन् !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सुप्रभातम् ॥ 18 ॥
मात्सर्यमानमदमोहजराविराम !
जन्मामयारिपरिवर्जिचित्तवृत्ते !
जाम्बूनदाभ ! भुवनेश्वर ! मल्लिनाथ !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सु प्रभातम् ॥ 19 ॥
क्षोणारिवर्ग ! मुनिस व्रत ! सु व्रतेश ।
संसारसागरसमुत्तरणैकसेतो ।
भिन्नेन्द्रनील बहलोल्लसिताङ्गराग ।
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सु प्रभातम् ॥ 20॥
कारुण्यसार ! वरधर्मरथ त्रिलोक !
चेतोमिलष्यफलपुष्पसुकल्पवृक्ष !
मायाविहीन ! नमिनाथ । सुवर्णवर्ण ।
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सुप्रभातम ॥ 21 ॥
दुर्भेदकर्मदलनोन्नतरिष्टनेमि ।
नाथावतंस कुसुमाभ सुमव्यमूर्ते !
नष्ठारिवग ! यदुवंशनभोमृगाङ्क !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सुप्रभातम् । । 22। ।
प्राग्दुष्टकष्ट कमठासुरदर्पदाह ।
दाहोपघातकर ! निवृत ! पार्श्वनाथ !
चारुप्रियङ्गुसमवर्णविराजिताङ्ग !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सुप्रभातम् । । 23। ।
सर्वार्थसाधक ! समुद्रगभीर ! धीर !
चामीकरस्फुरदनिंदितकायकान्ते !
चिन्तामणे ! भुवनभूषण ! वर्द्धमान !
श्रीमज्जिनेन्द्र ! विमलं मम सुप्रभातम् ॥ 24 ॥
विद्युत्प्रभात्तकलिकामणिकं स्वरूपम् ।
कण्ठेन शुद्धगुणसंग्रथितं क्रमेण ।
ये धारयन्ति मनुजा जिननाथभक्त्या ।
निर्वाणपादपफलं खलु ते लभन्ते ॥ 25 ॥
लघुसुप्रभातस्तोत्रम्
- श्रीवाग्भटाचार्यविरचित
सिद्धिप्रयातमतिदीर्घतरैस्तपोभिः
संस्मृत्य मन्त्रमिव यं सहसा जनोऽयम् ।
विश्लिष्यते कलुषदोषविषेण देवः ,
स श्रीजिनो जनयतान्मम सुप्रभातम् ॥ १ ॥
१ प्राप्त २ द्वादशविधतपश्चरणैः पक्षे मन्त्रसाधन कथितैस्तपोभिः
३ कलुषं पापं दोषा रागद्वेषादयः कलुषं च दोषाश्च कलुषदोषं समाहार द्वन्द्वत्वाद् एकवचनं तदेव विषं तेन । पक्षे कलुषं चित्तखेदः दोषा वात पित्तादयः कलुषेण उपलक्षिता दोषा यस्मात् विषात् तत्कलुषं च दोष च तदेव विषं तेन ।
छत्रत्रयं विशदशारदचन्द्रचारु ,
यस्य व्यनक्ति भुवनत्रितयप्रभुत्वम् ।
सर्वप्रभावविभवप्रभवप्रभावान् ,
स श्रीजिनो जनयतान्मम सुप्रभातम् । । २ । ।
x प्रकटयति ४ समस्त माहात्म्य विभूत्युद्भवभामण्डलयुक्तः ५ सुशोभनं प्रभातं ।
भामाण्डलेन वदनेन च भूरिधाम्ना ,
यः ' शोभमानविमलाकृतिरेति लक्ष्मीम् ।
आस न्नभानुशशिनः कनकाचलस्य ,
स श्रीजिनो जनयतान्मम सुप्रभातम् ॥ ३ ॥
१ एति गच्छति प्राप्नोतीत्यर्थः २ शोभां ३ निकटसूर्यचन्द्रस्य ४ मेरोः"
ये वीक्ष्य विस्मयविधायिवपुःस्वरूप - ,
मत्यन्तविस्मृतशिलीमुखमोक्षकर्मा ।
कामं कराकलितकार्मुक एव तस्थौ ,
स श्रीजिनो जनयतान्मम सुप्रभातम् । । ४ । ।
२ कर्ममोचनक्रिया यस्य स तथोक्तः ३ हस्तधृतचापः
यत्या दपद्मयुगसन्ततसन्निधाना
दासीदशोक इति कीर्तिपदं द्रुमोऽपि ।
आलम्बनं निरयमापततां जनानां ,
म श्रीजिनो जनयतान्मम सुप्रभातम् ॥ ५ ॥
वरणमलयुगलनिरन्तरसमीपात् २ नरक ।
भास्वत्प्रदीपनिभधर्मकथोपदेश - ,
दीपेन यस्य दलिते तमसाप्रसङ्गे ।
पश्यन्ति मुक्तिपदवीं मुनयः सुखेन ,
म श्रीजिनो जनयतान्मम सुप्रभातम् ॥ ६ ॥
मानपुण्यवार्ता कथनप्रकाशेन २ अज्ञानानां पक्षे अन्ध सम्पर्
श्रीवीतरागस्तोत्रम्
गणेन्द्रसेव्यं मुनिवृन्दवन्द्दं , देवेन्द्र पूज्यं भुवनेन्द्रध्येयं।
त्रेलोक्यनाथं त्रिजगच्छरण्यं , श्रीवीतरागं प्रणमा मि नित्यं।।१।।
सर्वज्ञमेकं विगताभिमानं , श्रीदर्शनं केवलिनामयुक्तं।
सौख्याकरं वीर्यगुणं विशालं , श्रीवीतरागं प्रणमामि नित्यं।।२।।
सत्प्रातिहार्यातिशयं गरिष्ठ , सिंहासनस्थं समशत्रुमित्रं ।
दिव्यध्वनिपोषितभव्यलोकं , श्रीवीतरागं प्रणमामि नित्यं ॥ ३ ॥
श्रीशान्तिरुपं नयनोत्पलं वै , श्रीदीप्तिमूर्ति गतसर्वड्गं।
विरायुघं निर्भयरत्नयुक्तं , श्रीवीतरागं प्रणमामि नित्यं।।४।।
निर्भूषणं रागविकारहीनं , भव्यैकधीरं हतपापवीरं ।
कमौधशत्रुं हतमोहपाशं , श्रीवीतरागं प्रणमामि नित्यं ॥ ५ ॥
श्रीमुक्तिनाथं भुवनैकसारं , जिनोत्तमं कीर्तिवरं महान्तं ।
मदोदयं तारितसर्वलोकं , श्रीवीतरागं प्रणमामि नित्यं ॥ ६ ॥
विद्यामयं धर्मकरं विमारं , यतेन्द्रियं श्रीऋषिनायकं तं ।
स्वयं गुरु भूतपतिं विदोष , श्रीवीतरागं प्रणमामि नित्यं । ।७।।
दिगम्बरं धर्ममयं सुधीरं , शतेन्द्रवन्द्दं जगदेकतीर्थं।
अपारसंसारसमुद्रपोतं , निर्ग्रन्थनाथेन नुतं जिनेन्द्रं ॥ ८ ॥
अखिलगुणसमुद्रं देवदेवैः प्रपूज्यं ,
मुनिगणधरसेव्यं भव्यसत्त्वैकवन्धुम् ।
रहितनिखिलदोषं वीतरागं श्रियाप्य ,
सकलविमलकीत् र्या संस्तुवे तद्गुणाय । । ९ ॥
आत्मभावनाष्टकम्
अनुपमगुणकोशं , छिन्नलोभादिपाशम् , बनभवनसमानं , केवलज्ञानमानम् । विनमदमरवृन्दं , सच्चिदानन्दकन्दम् , जिनवलसमतत्त्वं , भावयाम्यात्मतत्त्वम् ॥ १ ॥
रहितसकलमोहं , मुक्तसंसारदाहं , प्रहतविततमार्गं , क्षीणनोकर्ममार्गं । सहजचरणसारं , जन्मवाराशिपारं , स्वहितपरिणतत्वं , भावयाम्यात्मतत्त्वं ॥ २ ॥
अमृतसुखमनन्तं , निश्चलं मुक्तिकान्तं , शमितखलकषायं , लब्धमुक्त्यभ्युपायम् । दमितकरणदन्ति , प्राप्तदुष्कर्मशान्तिम् , भ्रमणविरहितत्वं , भावयाम्यात्मतत्त्वं ॥ ३ ॥
अकुटिलगतियुक्त , भावकर्मातिरिक्तं , सकलविमलवोधं , ध्वस्तसंसारबाधं । प्रकटितनिजधर्मं , नित्यचैतन्यशर्मं , विकृतिविरहितत्वं , भावयाम्यात्मतत्वं । । ४ । ।
प्रवरगुणकदम्बं , द्रव्यकर्माद्रिशम्बं , भववननिधिपोतं , शुद्धचित्तस्वभावं । शिवसुखसुचरित्रं , धातिवल्लीलवित्रं , नवमरसकतत्त्वं , भावयाम्यात्मतत्वं॥ ५।।
स्मरकमलशशाङ्कं , शुष्कदुष्कर्मपङ्कं , करणतिमिरमानुं , मुक्तिशैलेन्द्रसारनुं । स्थिरतरसुखरूपं , नष्टकामोग्रतापं , विरहितपरतत्वं , भावयाम्यात्मतत्त्वं । । ६ । ।
अजरअमरमेकं , विश्वलोकावलोकम् , निजरुचिमणिदीपं शान्तकर्माग्नितापं । सुजनजनवसन्तं , मोक्षलक्ष्मीनिकेतं , त्रिजगतिपरमतस्वं , भावयाम्यात्मतत्वं ॥ ७ ॥
त्रिदशनुतमनिन्धं , जैनयोगीन्द्रवन्धं , मधुरयमलदूरं , शाश्वतानन्दपूरं । चिदमलगुणमूर्तिः , बालचन्द्रोरुकीर्तिः , विदितसकलतत्त्वं , भावयाम्यात्मतत्वं।।८।।
इति आत्मभावनाष्टकं सम्पूर्ण ।
उपयोगाष्टकम्
अथ शुभमशुमं वा सत्यमस्ति क्रियाया-
फलमपधनभाजां निष्फलं नैव कर्म ।
निरवधिपरिशुद्धब्रह्मगम्भीरमूर्तिः ,
स जयति परमात्मा निष्फला यस्य सेवा । । १ । ।
ननु शुभ - उपयोगः पुण्यबन्धस्य हेतुः ,
प्रभवति खलु पापं तत्र यत्राशुभोऽसी ।
तदुभयमपि न स्याद् देव ! शुद्धोपयोगाद् ,
वरमिह तव सेवा यत्र तस्य प्रसूतिः | | २ | |
ध्रु वमयमशुभः स्याद् द्वेषसन्मोहरागैः ,
अभिसरति शुभत्वं केवलं धर्मरागात् ।
निजमहिमनि रागः द्वेषमोहैरपोढः ,
परिवृढदृढभावं याति शुद्धो यदा स्यात् ।।३।।
यदभिरुचितमस्मै मन्यते तद्धि पुण्यं ,
यदनभिरुचितं तुप्राह तत्पापमज्ञः ।
प्रविलसति सदेतद् द्वैतमद्वैतमेव ,
स्फुरति हृदयगर्भे तावकं यस्य तेजः | | ४ | |
इह हि भवति पुण्यं कारणं भोगवल्ल्याः ,
प्रभवति खलु तस्याः पुष्कला मोहवल्ली ।
इहमपि च विधत्ते पापवल्लीं दुरन्तां ,
द्वयमिदमविशिष्टं हेतुमद्धेतुमावः।।५।।
समभवमहमिन्द्रोऽनन्तशोऽनन्तवारान् ,
पुनरपि च निगोतोऽनन्तशोन्तर्विवृत्तः ।
किमिह फलमभुक्तं तद्यदद्यापि भोक्ष्ये ,
सकलफलविधत्ते कारणं देव ! देया । । ६ । ।
वमति झगिति रागं प्राप्य शुद्धोपयोगं ,
भवति शमसुखानां पात्रमस्तान्तरागः ।
प्रशमसुखरसज्ञो ज्ञानमाप्नोत्यनन्तं ,
भवति वरदजीवन्नेवमुक्तस्तदात्मा | | ७ | |
अपगतफलकामो निष्फलं प्राप्तुकामः ,
त्वयि निरवधि बोधेऽत्यन्तमाबद्धलक्ष्यः ।
स्वयमपि हि जनोऽयं पुण्यपापोपमर्दा-
दनुभवति विशुद्धब्रह्मभासिस्वरूपम् ।।८।।
। इत्युपयोगाष्टकम् ।
अध्यात्माष्टकम्
- श्रीवादिराजसूरिविरचितम्
( भुजङ्गप्रयातं छन्दः )
विभावाद्यभावात् स्वभावं वहन्तं ।
सुबोधिप्रकर्षा - दबोधं दहन्तं । ।
नयातीतरूपं नयाम्भोधिचन्द्रं ।
भजेऽहं जगजीवनं श्रीजिनेन्द्रम | | १ | |
दयादेयभावादनादेय दूरं ।
गुणानामभावाद् गुणाम्भोधिपूरम् । ।
सुचारित्र चर्येक्षणातीतनिद्रं ।
भजेऽहं जगज्जीवनं श्रीजिनेन्द्र । । २ । ।
शुभं वाऽशुभं कर्म चैकं समस्तं ।
नयान् निश्चितं बन्धनडं निरस्तं ।
स्वभावाप्तिरस्य स्वयं चाप्यतन्द्रं ।
भजेऽहं जगज्जीवनं श्रीजिनेन्द्रं ॥ ३ ॥
द्वयं चाद्वयं वस्त्वनित्यं च नित्यं ।
त्रिधा लभ्यमेतत् त्त्ववक्तव्य चिन्त्यम् । ।
लसत् सप्त भङ्गोर्मिमाला समुद्रं ।
भजेऽहं जगज्जीवनं श्रीजिनेन्द्रं ।।४।।
कृतस्त्यो विरोधादिदोषावकाशो ।
ध्वनिः स्यादिति स्यादहो यत् प्रकाशः । ।
इतीत्थं वदन्तं प्रमाणादरिद्रं ।
भजेऽहं जगज्जीवनं श्रीजिनेन्द्र।।५।।
प्रमाणं यतो द्वादशाङ्गाख्यशास्त्रं ।
सुवक्तृत्वतो धर्मकर्मादि पात्रम् ।
फलं यत् तपोद्रोरभूद् भव्य ! भद्रं ।
मजोऽहं जगज्जीवनं श्रीजिनेन्द्रं । । ६ । ।
उपादानहाने फलं चाप्युपेक्षा ।
परैरन्यभावादिमाने सुशिक्षा । ।
तदाभासद्द्क्त्वाच्ञ तेषामभद्रं ।
भजेऽहं जगज्जीवनं श्रीजिनेन्द्रं ॥ ७ ॥
अतुल्या अनन्ता गुणा स्तावकीनाः ।
सदोषाः सुतुच्छा मतिर्मामकीना । ।
पदं प्राप्यमेतावतैवाहमिन्द्रं ।
भजेऽह जगज्जीवनं श्रीजिनेन्द्रं ॥ ८ ॥
( स्रग्धराछन्दः )
षार्धाराधर्हणा ते , सुरगति सुखदा , तुष्टिपुष्टयादिकत्री ।
दिव्या वागागमोत्था श्रुतिसरणिगताऽनन्तमिथ्यात्वहर्त्री।।
रागद्वेषादिमुक्तो मुनिरिह विदितः शुद्धबोधाशयालुः ।
जन्मांहोवारणात् कस्तवमिममसृजद् वादिराजो दयालुः ।। ९ ।।
अद्याष्टकस्तोत्रम्
- अनन्तकीर्तिविरचितम्
निलंकन मयाऽद्य , मोक्षो न लतोऽननुभूतपूर्वः ।
मङ्गलाष्टकम्
यद्गर्भादवतारपूर्वनितरां मातुर्गृहप्राङ्गणे । षण्मासावधिरत्नकाञ्चनमयं , जातं शुभं वर्षणम् । ।
सर्वप्राणिसुखाब्धिसङ्गमकरं मासान् नवान् तु ध्रुवम् ।
भव्याम्भोरुहभानवो जिनवराः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् | | १ | |
यज्जन्माभिषवं सुरेन्द्र निकरा भक्त्युत्कटाः सादरं ।
मेरौ क्षीरमहार्णवस्य सलिलैः सम्पूर्ण हेम्नो घटैः ।
नानानृत्यविचित्रवाद्यनिचयैः सन्मङ्गलैः सम्भृतम् ।
चक्रुस्ते जिनपुङ्गवाः शुचितराः कुर्वन्तु नो मङ्गलम्।।२।।
श्रीचन्द्रप्रभपुष्पदन्तजिनपौ श्वेतौ च रक्तोत्तरौ ।
श्रीपद्मप्रभवासुपूज्य सुजिनौ कृष्णप्रभामास्वरी । ।
श्रीमत्सुव्रतनेमिकौ च हरितौ श्रीपार्श्वसत्सप्तमौ ।
वान्ये षोडश काञ्चनधुतिभराः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥ ३ ॥
ये देवेन्द्रप्रवन्दिता नतिकरै र्नागेन्द्रसत्खेचरैः ।
ये पूज्या इह चैव संयमधरा जाता विहायः स्थिराः । ।
यः कामप्रगजेन्द्र दुर्जयघटा ज्ञानाङ्कुशै निर्जिता ।
ते रत्नत्रयमण्डिता जिनवराः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् | | ४ |
सद्ध्यानाग्निविदग्धघातिकमहा - कर्मेन्धनाः श्रीजिनाः ।
सम्यक् केवलबोधलोचनधराः सत्प्रातिहायैर्युताः । । श्रीपादाम्बुजकान्तिधौतविलसत्सर्वेन्द्रमौलिप्रभाः ।
ते संसारसमुद्र तारणपराः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् । । ५।।
सद्धर्मामृतपूरतर्जितजगत् - पापप्रतापोत्कराः ।
भव्यप्राणिवितीर्णनिर्मलमहा स्वर्गापवर्गश्रियः । ।
त्यक्त्वाऽशेषनिबन्धनानि नितरां प्राप्ताः श्रियं शाश्वतीम् । ।
ते श्रीतीर्थकराः प्रनष्टविधुराः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥ ६ । ।
निर्दग्धाष्टकठोरकर्मनिकराः सिद्धाः प्रसिद्धिं गताः ।
सर्वक्लेशविनाशशर्मनिलयाः प्रव्यक्तसञ्चेतनाः । ।
पञ्चाचारविचित्ररत्ननिचयाः संज्ञानलक्ष्मीयुताः ।
सर्वे सूरिवराः सुमार्गचतुराः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् । । ७ । ।
मिथ्यावादकरीन्द्र यूथदमने निर्दोषकण्ठीरवाः । ।
चञ्चचारुधियो विबोधनपराः सर्वेऽपि ते पाठकाः । ।
सम्यग्दर्शनसाधुवोधविलसच्चारित्र चेतोहराः ।
सर्वे प्राणिहिताश्च साधुनिकराः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् | |
इत्थं श्रीजिनमङ्गलाष्टकमिदं श्रीमूलसङ्धेऽनघे । विद्वद्भिरपिसिंहनन्दिमुनिमि र्भक्त्या सदा भाषितम् । ।
नित्यं ये च पठन्ति निर्मलधियः संप्राप्य सत्सम्पदाम् ।
सौख्यं सारतरं भजन्ति नितरां श्रीनेमिदत्तस्तुतम् । । ९ । ।
इति मङ्गलाष्टकम्
आचार्य श्री विमलसागर स्तोत्रम्
( मालनी छन्द )
सतत सुपथ गामी गामिनलोक हेतु ,
जिन - जिन जिन जापं ध्यानयोगेनलाति ।
तप सुतप महाकर्मं समूलं करोति ,
गुरु च विमल सिंधु नौमि पादारविंदं । । । । ।
पठति सतत शास्त्रांअर्हतमोक्त शुद्धं ,
समय - समययो आत्मानुभूति करोति ।
अविकल जिन भक्तिं शक्तिरूपं करोति ,
गुरु च विमलसिन्धुं नौमि पादारविंदं । । 2 । ।
जन - मन - तन दुःखं पश्य दूरं करोति ,
कथयति च णमोकारं जपो निश्चलेन ।
कुरु - कुरु च सुकर्मं भासयंत्येतिनित्यं ,
गुरु च विमलसिंधुं नौमि पादारविंदं । । 3 । ।
वद - वद - वद सत्यं येनभाषा विशुद्धा ,
चर - चर च सदाचारं निरालस्यमुक्तं ।
घर - घर - घर हर्द स्वंविरांग च नित्यं ,
गुरु च विमलसिंधु नौमि पादारविंदं । । 4 । ।
( अनुष्टुप छंद )
जन्म शताब्दि वर्षोऽयं , विराग मनसा मया ।
गुरु विमल पादान् नमामि तं भक्तित्रयेण । । 5 । । । । इति । ।
सन्मत्याष्टकम्
श्री महावीर कीत्र्याग्रः , पट्टस्य त्याग मूर्तये ।
भारत गौरवाचार्यः । वन्दे सन्मति सागरम् । । । ।
अध्यात्म योग सम्पन्नः , श्रुत सिद्धान्त पारगः ।
धर्म प्रभावकः सूरि , वन्दे सन्मति सागरम् । । 2 ।
महोपसर्ग जेतायं , दया धैर्य गुणाः गणी ।
परिषहादि जेतारं , वन्दे सन्मति सागरम् । । 3 ।
रत्नत्रय गुणाः लीनः , योग ध्यान सुनिश्चलः । ।
करुणामूर्ति आचार्यः ! वन्दे सन्मति सागरम् । । 4 ।।
आत्म कल्याणकः योगी , जिनधर्म प्रभावकः ।
श्रमण रत्नमाचार्यः ! वन्दे सन्मति सागरम् । । । ।
निवसति दया नेत्रे , कर्णोः जिनश्रुत सदा ।
हृदये जिनदेवाश्च , वन्दे सन्मति सागरम् । । 6 । ।
निर्भयं च निराद्वंद , निर्वेदकः निरामयः ।
मोक्षमार्गे रतः पूज्यः , वन्दे सन्मति सागरम् ।।17 ।।
दूरदर्शी ! सुगम्भीरः ! भव्य बन्धु ! अकारणः ।
धर्म संबल दातारं , वन्दे सन्मति सागरम् । । 8 ।।
मोक्षमार्ग प्रदातारं , हस्तावलम्बनं महद् ।
' विरागः ' शोभते येनं , वन्दे सन्मति सागरम् । । 9 ।।
विद्या बुद्धिः महालक्ष्मी , सन्मत्याष्टक स्तुतिम्
भक्त्या पठित्यो भव्यः , लभन्ते पूर्ण सन्मतिं।10
।।इति । ।
भक्तामर स्तोत्र के 48 ऋद्धि मंत्र
1 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो जिणाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
2 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो ओहि जिणाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
3 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो परमोहि जिणाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
4 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वोहि जिणाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
5 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो अणंतोहि जिणाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
6 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो कोट्ठ बुद्धीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
7 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो बीजबुद्धीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
8 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो पादाणुसारीणं झ्रौं झ्रौं नमः।
9 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो संभिण्ण सोदारणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
10 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो सयंबुद्धीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
11 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो पत्तेय बुद्धाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
12 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो बोहिय बुद्धाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
13 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो उजुमदीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
14 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउल मदीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
15 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो दस पुव्वीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
16 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो चउदस पुव्वीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
17 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो अट्ठगमहा णिमित कुसलाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
18 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्वइड्ढि पत्ताणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
19 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो विज्जाहराणं झ्रौं झ्रौं नमः।
20 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो चारणाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
21 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो पण्ण समणाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
22 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगास गामीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
23 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो आसीविसाणं झ्रौं झ्रौं नमः।
24 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो दिट्ठिविसाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
25 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो उग्ग तवाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
26 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो दित्त तवाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
27 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो तत्त तवाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
28 . ॐ ह्रीं र्हं णमो महा तवाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
29 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर तवाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
30 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर गुणाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
31 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर परक्कमाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
32 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोरगुण बंभयारीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
33 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो आमोसहि पत्ताणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
34 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो खेल्लोसहि पत्ताणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
35 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो जल्लोसहि पत्ताणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
36 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो विप्पोसहि पत्ताणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
37 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वोसहि पत्ताणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
38 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो मणबलीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
39 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो वचिबलीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
40 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो कायबलीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
41 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो खीरसवीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
42 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो सप्पिसवीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
43 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो महुरसवीणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
44 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो अमियसवीणं झ्रौं झ्रौं नमः।
45 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो अक्खीणमहाणसाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
46 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो वड्डमाणाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
47 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो सिद्धायदणाणं झ्रौं झ्रौं नमः ।
48 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो भयवदो - महदि - महावीर वड्ढमाण - बुद्ध - रिसीणो ( चेदि ) झ्रौं झ्रौं नमः ।
जाप : ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्री वृषभनाथ तीर्थंकराय नमः । ।
चौसठ ऋद्धि मंत्र
1 . ॐ ह्रीं अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
2 . ॐ ह्रीं मन : पर्ययज्ञान बुद्धि ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
3 . ॐ ह्रीं केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
4 . ॐ ह्रीं बीज बुद्धि ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
5 . ॐ ह्रीं कोष्ठ बुद्धि ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
6 . ॐ ह्रीं पादानुसारिणी बुद्धि ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
7 . ॐ ह्रीं संभिन्न श्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
8 . ॐ ह्रीं दूरास्वादित्व बुद्धि ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
9 . ॐ ह्रीं दूर स्पर्शत्व बुद्धि ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
10 . ॐ ह्रीं दूर घ्राणत्व बुद्धि ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
11 . ॐ ह्रीं दूर श्रवणत्व बुद्धि ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
12 . ॐ ह्रीं दूर दर्शित्व बुद्धि ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
13 . ॐ ह्रीं दशपूर्वित्व बुद्धि ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
14 . ॐ ह्रीं चतुर्दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
15 . ॐ ह्रीं अष्टांग महानिमित्त बुद्धि ऋद्ध्ये नम :अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
16 . ॐ ह्रीं प्रज्ञाश्रमण बुद्धि ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
17 . ॐ ह्रीं प्रत्येक बुद्धि ऋद्ध्ये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
18 . ॐ ह्रीं वादित्व बुद्धि ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
19 . ॐ ह्रीं अणिमा विक्रिया ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
20 . ॐ ह्रीं महिमा विक्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
21 . ॐ ह्रीं लघिमा विक्रिया ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व .स्वाहा ।
22 . ॐ ह्रीं गरिमा विक्रिया ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
23 . ॐ ह्रीं प्राप्ति विक्रिया ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
24 . ॐ ह्रीं प्राकाम्य विक्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
25 . ॐ ह्रीं ईशत्व विक्रिया ऋद्धयये नमः अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
26 . ॐ ह्रीं वशित्व विक्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व.स्वाहा ।
27 . ॐ ह्रीं अप्रतिधात विक्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
28 . ॐ हीं अंतर्ध्यान विक्रिया ये नमः अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
29 . ॐ ह्रीं कामरूप विक्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
30 . ॐ ह्रीं नभस्तलगामित्वचारण क्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
31 . ॐ ह्रीं जल चारण क्रिया ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व.स्वाहा।
32 . ॐ ह्रीं जंघा चारण क्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व, स्वाहा ।
33 . ॐ ही फल पुष्प पत्र चारण क्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व स्वाहा ।
34 . ॐ ह्रीं अग्नि धूम चारण क्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
35 . ॐ ह्रीं मेघ धारा चारण क्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व , स्वाहा । ।
36 . ॐ ह्रीं तंतु चारण क्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
37 . ॐ ह्रीं ज्योतिष चारण क्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व, स्वाहा । ।
38 . ॐ ह्रीं मरुच्चारण क्रिया ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
39 . ॐहीं उग्रतप : ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
40 . ॐ ह्रीं दीप्ततपः ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
41 . ॐ हीं तप्ततपः ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
42 . ॐ हीं महातपः ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
43 . ॐ ह्रीं घोरतपः ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
44 . ॐह्रीं घोरपराक्रम तपः ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
45.ॐह्रीं अघोर ब्रह्मचारित्व तपः ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व , स्वाहा ।
46 . ॐ ह्रीं मनोबल ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा । । 47 . ॐ ह्रीं वचनबल ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व स्वाहा ।
48 . ॐ ह्रीं कायबल ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व. स्वाहा । । 49 . ॐ ह्रीं आमर्शौषधि ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
50 . ॐ ह्रीं क्ष्वेलौषधि ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
51 . ॐ ह्रीं जल्लौषधि ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
52 . ॐ ह्रीं मलौषधि ऋद्धये नम :अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
53 . ॐ ह्रीं विप्रुषौषधि ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
54 . ॐ ह्रीं सर्वौषधि ऋद्ध्ये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा । 55 . ॐ ह्रीं मुखनिर्विष ऋद्ध्ये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
56 . ॐ ह्रीं दृष्टि निर्विष ऋद्धये नमः अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
57 . ॐ ह्रीं आशी विष रस ऋद्ध्ये नम : अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
58 . ॐ ह्रीं दृष्टि र्विष रस ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
59 . ॐ ह्रीं क्षीरस्रावि रस ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
60 . ॐ ह्रीं मधुस्रावि रस ऋद्ध्ये नम :अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
61 . ॐ ह्रीं अमृतस्रावि रस ऋद्ध्ये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
62 . ॐ ह्रीं सर्पिस्रावि रस ऋद्ध्ये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
63 . ॐ ह्रीं अक्षीण महानस ऋद्धये नम :अर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
64 . ॐ ह्रीं अक्षीण महालय ऋद्धये नम : अर्घ्यं निर्व . स्वाहा ।
कल्याण मन्दिर स्तोत्र ऋद्धि मंत्र
1. ॐ ह्रीं अर्हं णमो पासं पासं पासं फणं नमः ।
2. ॐ ह्रीं अर्हं णमो दव्वकराए नमः ।
3.ॐ ह्रीं अर्हं णमो समुद्र भय समन बुद्धीणं नमः ।
4.ॐ ह्रीं अर्हं णमो धम्मराए जयतिए नमः । वुड्ढि
5.ॐ ह्रीं अर्हं णमो धणवुड्ढिं कराए नमः ।
6.ॐ ह्रीं अर्हं णमो पुत्तइत्थी कराए नमः ।
7 ॐ ह्रीं अर्हं णमो महाणं झाणाय नमः ।
8 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो उण्ह गदहारिए नमः ।
9 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो को पं हं स : नमः ।
10 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो रपणासणाए नमः ।
11 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो वारिबाल बुद्धीए नमः ।
12 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगालभववज्जणाए नमः ।
13 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो इक्खुवज्जणाए नमः ।
14 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो मोझ् सण झूस णाए नमः । ।
15. ॐ ह्रीं अर्हं णमो तक्खरधणप व प्पियाए नमः ।
16 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो णगभयपणासए नमः ।
17 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो कुद्ध बुद्धि णासए नमः ।
18 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो पासे सिद्धा सुणंति नमः ।
19 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो अक्खिगद णासए नमः ।
20 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो गहिल गह णासए नमः ।
21 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो पुप्फियतरूपत्ताए नमः ।
22 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो तरूपत्त पणासए नमः ।
23 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो वज्ज य हरणाए नमः ।
24. ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगास गामियाए नमः ।
25 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो हिंडण मलाणायाए नमः ।
26 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो जयदेवपासेवत्ताए नमः ।
27 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो खल - दुट्ठणासए नमः ।
28 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो उव दव वज्जणाए नमः ।
29 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो देवाणुप्पियाए नमः ।
30 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो भद्दा ए नमः ।
31 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो वी आ णं पत्ताए नमः ।
32 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो अट्ठमट्ठदणासए नमः ।
33 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो जावित्तापरिवत्ताए नमः ।
34 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो उंजि अस्सायतक्खणणं नमः ।
35 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो मिज्जलिज्जणासए नमः ।
36 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो ग्रां हुं फट् विचक्राए नमः ।
37 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो स्वो भि ह्रीं खोभिए नमः ।
38 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो इट्ठि मिट्ठ भक्ख कराए नमः ।
39 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो सत्ता वरिएगु णिज्जं नमः ।
40 . ॐ ह्रीं अर्हं णमोण्ह सौअय णासए नमः ।
41 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो वप्पला हव्व ए नमः ।
42 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो इत्थि वत्थ णासए नमः ।
43 . ॐ ह्रीं अर्हं णमो बंदि मोक्ख या ए नमः ।
44 . ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं क्लीं नमः ।
छहढाला
- पं . द्यानतराय जी कृत
पहली ढाल
( सोरठा )
ओंकार मंझार , पंच परम पद बसत हैं
तीन भुवन में सार , बंदू मन वच काय कर
अक्षर ज्ञान न मोहि , छन्द भेद समझूं नहीं मति थोड़ी कम होय , भाषा अक्षर बावनी
आतम कठिन उपाय , पायो नर भव क्यों तजै राई उदधि समाय , फिर ढूंढे नहिं पाइये
इह विधि नरभव खोय , पाय विषय सुख में रमै सो शठ अमृत खोय , हालाहल विष को पिये
ईश्वर भाखो येह , नरभव मत खोओ वृथा फिर न मिलै यह देह , पछतावो बहु होयगो
उत्तम नर अवतार , पायो दुखकर जगत में यह जिय सोच विचार , कुछ टोसा संग लीजिये
ऊरध गति को बीज , धर्म न जो मन आचरै मानुष योनि लहीज , कूप पड़े कर दीप ले
ऋषिवर के सुन वैन , सार मनुज सब योनि में ज्यों मुख ऊपर ।
नैन , भानु दिपै आकाश में
दूसरी ढाल
( मनहरण छन्द )
रे जिय नर भव पाया , कुल जाति विमल तू आया . ... जो जैनधर्म नहिं धारा , सब लाभ विषय संग हारा
लखि बात हृदय गह लीजे , जिनकथित धर्म नित कीजे भवदुखसागर को तरिये , सुख से नवकार उचरिये
ले सुधि न विषय रस भरिया , भ्रममोह ने मोहित करिया विधि ने जब दई घुमरिया , तब नरक भूमि तू परिया
अब नर कर धर्म अगाऊ , जब लों धन यौवन ताऊ जबलों नहिं रोग सतावै , तोहि काल न आवन पावै
ऐश्वर्यरु आश रित नैना , तबलों तेरी दृष्टि फिरै ना जबलों तेरी दृष्टि सवाई , कर धर्म अगाऊ भाई
ओस बिन्दु त्यों यौवन है , कर धर्म जरा पुन जै है ज्यों बूढ़ो बैल थकै है , कछु कारज कर न सके है
औ छिन संयोग वियोगा , छिन जीवन छिन मृत्यु रोगा। छिनमें धन यौवन जावै , किसविधि जग में सुख पावै
अंबर - धन जीवन येहा , गज - करण चपल धन - देहा तन - दर्पण छाया जानो , यह बात सभी उर आनौ
तीसरी ढाल
( रोला छन्द )
1
आ यम ले नित आयु , क्या न धर्म सुनीजै नयन तिमिर नित हीन , आसन यौवन छीजे कमला चले नहिं पैड , मुख ढाकै परिवारा देह थकै बहु पोष , क्यों न लखे संसारा
2 .
छिन नहिं छोड़े काल , जो पाताल सिधारे बसे उदधि के बीच , जो बहु दूर पधारे गण सुर राखे तोहि , राखे उदधि मथैया तोहु तजे नहिं काल , दीप पतंग ज्यों पडिया
3
घर गौ सोना शान मणि, और औषधि सब यों ही यंत्र - मंत्र कर तंत्र , काल मिटे नहिं क्यों ही नरक तनो दुख भूर , जो तू जीव सम्हारे तो न रुचे आहार , अब सब परिग्रह डारे
4
चेतन गर्भ मंझार , वसिके अति दुख पायो बालपने की ख्याल , सब जग प्रगटहि गायो छिन में तन को सोच , छिन में विरह सतावै छिन में इष्ट वियोग , तरुण कौन सुख पावे
चतुर्थ ढाल
( चाल - चेत सुन भाई रे )
जरापने जो दुख सहे , सुन भाई रे सो क्यों भूले तोहि , चेत सुन भाई रे जो तू विषयों से लगा , सुन भाई रे आतम सुधि नहिं तोहि , चेत सुन भाई रे झूठ बचन अघ ऊपजे , सुन भाई रे गर्भ बसो नवमास , चेत सुन भाई रे। सप्त - धातु लहि पाप से , सुन भाई रे। तबहूँ पाप रताय , चेत सुन भाई रे। नहीं जरा गद आये है , सुन भाई रे कहाँ गये यम यक्षवे , चेत सुन भाई रे। जो निश्चिन्तित हो रह्यो , सुन भाई रे सो सब देख प्रत्यक्ष , चेत सुन भाई रे टुक सुख को भवदधि पड़े , सुन भाई रे पाप लहर दुखदाय , चेत सुन भाई रे। पकड़ो धर्म - जहाज को , सुन भाई रे। सुख से पार करेय , चेत सुन भाई रे। त्र ठीक रहे धन शास्वती , सुन भाई रे होय न रोग न काल , चेत सुन भाईरे उत्तम धर्म न छोड़िये , सुन भाईरे। धर्म कथित जिनधार , चेत सुन भाई रे। डरते जो परलोक से ,सुन भाईरे चाहत शिव सुख सागर , चेत सुन भाई है क्रोध लोभ विषयन तजो , सुन भाई रे। कोटि कटै अघ जाल , चेत सुन भाई रे। ढील न कर आरम्भ तज , सुन भाई रे आरम्भ में जिय घात , चेत सुन भाई रे। जीवघात से अघ बढ़े , सुन भाई रे अघ से नरक लहात , चेत सुन भाई रे नरक आदि त्रैलोक में , सुन भाई रे ये परभव दुखराशि , चेत सुन भाई रे। सो सब पूरब पार से , सुन भाई रे। सबहि सहै बहु त्रास , चेत सुन भाई रे
पांचवी ढाल
( भाई । न अब धर्म सम्हार )
तिहुं जग में सुख आदि दे,सो सुख दुर्लभ सार । सुन्दरता मन मोहनी , सो है धर्म विचार थिरता यश सुख धर्म से , पावत रत्न भंडार धर्म बिना प्राणी लहै , दुःख अनेक प्रकार। दान धर्म ते सुख लहै , नरक लहै कर पाप। इह विधि नर जो क्यों पड़े, नरक विषै तूआप। धर्म करत शोभा लहै , हय गय रथ वर साज प्रासुक दान प्रभाव तें , घर आवै मुनिराज नवल सुभग मन मोहना , पूजनीक जगमाहिं रूप मधुर वच धर्म से , दुख कोई व्यापै नाहिं परमारथ यह बात है , मुनि को समता सार विनय मूल विद्या तनी , धर्म दया सरदार फिर सुन करुणा धर्ममय , गुरु कहिये निग्रन्थ देव अठारह दोष बिन , यह श्रद्धा शिवपंथ बिन धन घर शोभा नहीं , दान बिना पुनि गेह जैसे विषयी तापसी , धर्म दया बिन तेह
छठी ढाल
( दोहा )
भोंदू धनहित अघ करे , अघ से धन नहिं होय धरम करत धन पाइये , मन वच जानो सोय मत जिय सोचे चिंतवे , होनहार सो होय जो अक्षर विधना लिखे , ताहि न मेटे कोय यद्यपि द्रव्य की चाह में , पैठे सागर माहि । शैल चढ़े वश लोभ के , अधिको पावै नाहिं रात - दिवस चिंता चिता , माहिं जले मत जीव जो दीना सो पायगा , अधिक न मिले सदीव लाग धर्म जिन पूजिये , सत्य कहें सब कोय चित प्रभु चरण ध्याइये , मनवांछित फल होय वह गुरु हो मम संयमी , देव जैन हो सार साधर्मी संगति मिलो ,जब लो हो भवपार शिवमारग जिन भाषियो , किंचित जानो सोय । अंत समाधीमरण करि , चहुंगति दुख क्षय होय षट्विधि सम्यक् जो कहै , जिनवानी रुचि जास सो धन सों धनवान है , जग में जीवन तास सरधा हेतु हृदय धर , पढ़े सुनै दे कान। पाप - कर्म सब नाश के , पावै पद - निर्वाण हित सों अर्थ बताइयो , सुथिर बिहारी दास सत्रहसो अठ्ठानवा , तेरस कार्तिक मास क्षय उपशम बलसों कहै , " द्यानत " अक्षर येहु देख सुबोध पंचासिका , बुधिजन शुद्ध करेहु त्रेपन क्रिया जो आचरै , मुनिगण विंशत आठ हृदय धरै अति चावसों , जारै वसु विधि काठ ज्ञानवान जैनी सबै , बसें आगरा माहिं साधर्मी संगति मिले , कोई मूरख नाहिं
( दौलत प्रभाती 1
दर्शन पाठ 2
पखवाड़ा 3
संकट मोचन 4
दुःख हरण 5
रत्नाकर 6
आलोचन 7
सामयिक पाठ 8
सरस्वती स्तवन 9
गुरु स्तुति 10
गुरु स्तोत्र11
मंगल पंचम 12
मंगलाष्टकम्13
सरस्वती स्तोत्र14
सरस्वती नामस्तोत्र15
द्रष्टाष्टक15
दर्शन भक्ति16
आत्मभावनाष्टक17
उपयोगष्टक18
अध्यात्मकष्टक 19
अघाष्टक स्तोत्रम् 20
वीतरागस्तोत्र 21
लघु सुप्रभात 22
व्रहत्सुप्रभात 23
आदिनाथ स्तोत्र 24
ऋषभाष्टक 25
पुरुदेवाष्टकम् 26
शांतिस्तवन 27
शांतिनाथस्तोत्र 28
पार्श्वनाथष्टक 29
पार्श्वनाथस्तोत्र30
पार्श्वनाथस्तोत्र31
अकलंकस्तोत्र 32
सिध्दिप्रिय स्तोत्र 33
गणधरस्तोत्र , ॠद्धिमंत्र 34
चैत्य भक्ति 35
म्रत्यु महोत्सव 36
वर्ण तथा फल 37 )
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